Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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" नान्योनुभाव्यो बुध्द्यास्ति " इस प्रथम पादका खण्डन हो चुका । अब द्वितीय, तृतीय पाद, का निरास करते हैं। -
एतेन बुद्धेर्बुध्यन्तरेणानुभवोऽपि परोस्तीति निश्चितं ततो न ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं बुद्धिरेव प्रकाशते। - इस पूर्वोक्त कथनसे यह भी निर्णीत हो चुका कि दूसरी बुद्धिसे प्रकृत बुद्धिका अनुभव भी निराला हो जाता है । स्वयं बुद्धिसे अपना अनुभव भी कथंचित् भिन्न है, जैसे कि बह्निकी दाहकत्व शक्तिसे दाहपरिणाम कथंचित् भिन्न है । उसी प्रकार करणस्वरूप बुद्धिसे भावरूप अनुभव किसी अपेक्षा भिन्न है । तिस कारण ग्राह्य और ग्राहक अंशोंसे रिक्तपने स्वरूपसे स्वयं बुद्धि ही प्रकाश रही है, यह न मानना । निष्कर्ष यह है कि विषयके साथ बुद्धि स्वयं अपनेको भी उसी समय जान लेती है । अतः संवेद्य, संवेदक, और संवेदन तीनों अंश युगपत् बुद्धिमें हैं। किन्तु चलाकर इच्छा होनेपर दूसरी बुद्धिसे प्रकृत बुद्धिको जाननेकी दशामें बुद्धिका अनुभव भिन्न होकर भी स्पष्ट प्रकाशित हो जाता है । यहां ग्राह्य, ग्राहक, अंशोंसे सहितपना भी स्पष्टरूपसे दीख रहा है।
- मा भूत् सन्तानान्तरस्य स्वसन्तानस्य वा व्यवस्थितिबहिरर्थवत्संवेदनाद्वैतस्य ग्राह्यग्राहकाकारविवेकेन स्वयं प्रकाशनादित्यपरः । तस्यापि सन्तानान्तराद्यभावोऽनुभाव्यः, संवेदनस्य स्यादन्यथा तस्याद्वयस्याप्रसिद्धः।। ___शुद्धसंवेदनाद्वैतवादी वैभाषिक बौद्ध कहते हैं कि बहिरंग अर्थके समान अन्य सन्तानोंकी और अपने सन्तानोंकी भी व्यवस्था भले ही नहीं होवे हमको इष्ट है । क्योंकि ग्राह्य, ग्राहक, आकारोंसे पृथग्भाव करके अकेले संवेदनाद्वैतका स्वयं प्रकाश हो रहा है। " विचिर पृथग्भावे " धातसे बने हुए विवेक शद्वका अर्थ पृथग्भाव होता है और “ विचिल विचारणे" धातुसे निष्पन्न हुए विवेकशद्वका अर्थ जानना होता है, यहां पृथग्भाव अर्थ इष्ट है, इस प्रकार दूसरा बौद्ध कह रहा है । इसपर आचार्य कहते हैं कि उस बौद्धके यहां भी अन्य सन्तान, स्वसन्तान, नील, आदिका अभाव तो संवेदनके द्वारा अवश्य अनुभव कराने योग्य होगा। अन्यथा यानी सन्तानान्तर आदिके अभावको यदि ज्ञेय नहीं माना जावेगा तो सन्तानान्तर आदिकी सत्ता बन बैठेगी। ऐसी दशामें उसके अद्वैतपनेकी भले प्रकार सिद्धि नहीं हो सकती है। द्वैत आगया। " सेयमुभयतः पाशा रज्जुः"।
स्वानुभवनमेव सन्तानान्तराधभावानुभवनं संवेदनस्येति च न सुभाषितं, स्वरूपमात्रसंवेदनस्यैवासिद्धिः। नहि क्षणिकानंशस्वभावं संवेदनमनुभूयते, स्पष्टतयानुभवस्यैव क्षणिकत्वात् क्षणिकं वेदनमनुभूयत एवेति चेत् न, एकक्षणस्थायित्वस्याक्षणिकत्वस्यामिधानात् ।
अकेले अपने स्वरूपका अनुभव करना ही संवेदनका सन्तानान्तर आदिके अभावका अनुभव करना है। संवेदनमे अभाव कोई भिन्न पदार्थ नहीं है जो कि अनुभाच्य होय । इस प्रकार अद्वैतवा