Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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तिस ही कारण नाम आदिकोंका परस्परमें संकर व्यतिकर दोष भी नहीं है। परस्परमें परावर्तित ( बदली हुयी ) की गयी अपेक्षासे हुये सांकर्यको या सम्पूर्ण धर्मोकी एक समयमें प्राप्ति हो जानेको संकर कहते हैं, और परस्परमें विषयके बदल जानेको या चाहे तिस अपेक्षाका चाहे जिस विषयमें चले जानेको व्यतिकर कहते हैं। यहां नाम आदि निक्षेपोंकी अपने अपने स्वरूपसे ही स्वतन्त्रतापूर्वक एक अर्थमें प्रतीति हो रही है । अतः उक्त दोनों दोष नहीं आते हैं।
तदनेन नामादीनामेकत्राभावसाधने विरोधादिसाधनस्यासिद्धिरक्ता ।
तिस कारण इस कथनसे यह कहा गया कि एक स्थानमें नाम आदि निक्षेपोंका अभाव सिद्ध करनेमें दिये गये विरोध, संकर आदि हेतु असिद्ध हेत्वाभास हैं। यानी विरोध आदि हेतु नाम आदिक पक्षमें नहीं रहते हैं, जब हेतु ही पक्षमें न रहा तो वहां साध्यको क्या सिद्ध करेगा ? यानी नहीं। भावार्थ यों है कि अवयवीको माननेवाले जैन-सिद्धान्तके अनुसार विचारा जाय तो लोकप्रसिद्ध विरोधोंका मिलना ही दुर्लभ है एक धूपघटके नीचले प्रदेशमें शीतस्पर्श है और ऊपर उष्णस्पर्श है। अग्नि भी शीतऋतुमें अपेक्षाकृत शीतल हो जाती है । मेरुको सब ओरसे उत्तर माननेके सिद्धान्त अनुसार सूर्यका उदय पश्चिम दिशामें भी हो जाता है । कोई कोई पत्थर पानीमें तैर जाता है। विशेष लकडी पानीमें डूब जाती है । स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षा एक पदार्थमें सत्त्व और असत्त्व धर्म रह जाते हैं । शिक्षा, मंत्र, ऋद्धि, दयाभाव, भय, आदि कारणोंसे सर्प और नकुल तथा सिंह
और गौ एवं चूहा बिल्ली भी एक स्थानपर पाये जाते हैं। परस्परमें एक दूसरेका परिहार कर स्थित रहनेवाले रूप, रस, तथा ज्ञान, सुख, आदि तो एक ही द्रव्यमें रहते हैं। हां ! शास्त्रीय मुद्रासे विरोध यों चरितार्थ हो जाता है कि आकाशमें ज्ञान या रूपके रहनेका विरोध है । आत्मामें वर्तनाके हेतुपन और स्पर्शका विरोध है। अभव्यके सम्यग्दर्शन हो जानेका विरोध है । सर्वज्ञ उसी समय अल्पज्ञ नहीं हो सकता है । सूर्य विमान नरकोंमें भ्रमण नहीं करता है । सिद्ध परमेष्ठी अब संसारी नहीं हो सकते हैं आदि ।
येनात्मना नाम तेनैव स्थापनादीनामेकत्रैकदा विरोध एवेति चेत् न,तांनभ्युपगमात् ।
किसीका पक्ष है कि जिस स्वभाव करके नाम निक्षेप है । उसी स्वरूप करके तो स्थापना निक्षेप या द्रव्यनिक्षेप नहीं है अतः एक इन्द्र आत्मामें भी नाम, स्थापना आदिकोंका एक कालमें विरोध ही हुआ, आचार्य उत्तर करते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि तिस प्रकार तो हम स्वीकार नहीं करते हैं। यानी हमारे यहां जिस धर्मके द्वारा नाम है उसी धर्म करके स्थापनानिक्षेप नहीं माना गया है। सम्भावना होनेपर तो विरोधकी कल्पना की जा सकती है, किंतु जहां सम्भावना ही नहीं, वहां विरोध दोष उठाना भी कैसा ? भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे माम आदिक एकमें युगपत् पाये जाते है।