Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
सांश, आत्माको सिद्ध कर देवेगा । प्रत्युत बौद्धोंके माने हुए परमाणुरूप विज्ञानकी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्धि न हो सकेगी ।
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यथेन्द्रियजस्य बहि:प्रत्यक्षस्य तत्त्वतोऽसद्भावस्तथा मानसस्य योगिज्ञानस्य च स्वरूपमात्रपर्यवसितत्वात्। ततः स्वसंवेदनमेकं प्रत्यक्षमिति चेत् सिद्धं तर्हि चेतनातत्वमंशांशिस्वरूपं स्वसंवेदन। तस्यैव प्रतीयमानत्वात् । न हि सुखनीलाद्याभासांशा एव प्रतीयन्ते स्वशरीरव्यापिनः सुखादिसंवेदनस्य महतोऽनुभवात् । नीलाद्याभासस्य चेन्द्रनीलादेः प्रचयात्मनः प्रतिभासनात् ।
बौद्ध कहते हैं कि जैसे चक्षुः आदि पांच इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए बहिरंग प्रत्यक्षकी परमार्थरूपसे सत्ता सिद्ध नहीं है, तिसी प्रकार अन्तरंग मन इंन्द्रियसे उत्पन्न हुए मानस प्रत्यक्षकी और योगियोंके अतीन्द्रिय प्रत्यक्षकी भी सत्ताको हम नहीं मानते हैं। कोई भी बहिरंग ज्ञेय पदार्थ वस्तुभूत नहीं है, केवल विज्ञान परमाणुएं ही परमार्थस्वरूप हैं। सभी ज्ञान केवल अपने स्वरूपको जाननेमें ही लवलीन ( टकटकी लगाये रखना ) रहते हैं, तिस कारण हम योगाचार केवल स्वको जाननेवाले एक स्वसंवेदनको ही प्रत्यक्ष मानते हैं । इस प्रकार बौद्धों के कहनेपर तो अंश और अंशीस्वरूप चेतना ( ज्ञान ) तत्त्व सिद्ध हो जाता है । क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे तो उस धर्म धर्मीरूप चेतनकी 1 ही प्रतीति की जारही है, अन्तरंग सुख, इच्छा, आदिको और बहिरंग नील, पीत आदिको प्रकाश करनेवाले केवल अंश ही नहीं प्रतीत हो रहे हैं । किन्तु साथमें अपने शरीर ( डील ) में व्यापक रूपसे रहनेवाले महान् ( लम्बे, चौडे, मोटे, ) सुख आदि अंशीके संवेदनका भी अनुभव होरहा है, तथा इन्द्रनील मणि, माणिक्य, आदिके अनेक प्रदेशोंका समुदायरूप नील, रक्त, आदि प्रकाशोंका प्रतिभास हो रहा है । भावार्थ — नील, लाल, आदिको जाननेवाले ज्ञानोंमें अंशोंके समान लम्बे चौडे अंशरूप ज्ञानप्रकाशका भी अनुभव हो रहा है । अतः बहिरंग और अन्तरंग पदार्थोके ज्ञानों में अंशीपना भी स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे जान लिया गया मान लेना चाहिये ।
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विज्ञानमचयोऽप्येष भ्रान्तश्चेत् किमविभ्रमम् ।
स्वसंवेदनमध्यक्षं ज्ञानाणोरप्रवेदनात् ॥ १२ ॥
यदि बौद्ध यों कहें कि यह विज्ञानोंका प्रदेशसमुदायरूप महान् प्रकाश भी भ्रान्तरूप है । अर्थात् घट, पट, आत्मा, आदिक पदार्थोंका महान्पना जैसे कोरा कल्पित है वास्तविक नहीं, तैसे ही विज्ञानके प्रकाशका महान्पना भी भ्रान्त है। ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि बताओ ! कौनसा तुम्हारा माना हुआ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भला प्रमाणरूप अभ्रान्तसिद्ध होगा ? सभी स्वसंवेदन तो अंश अंशीरूप होकर अनुभूत हो रहे हैं । कहीं भी प्रमाणज्ञानके प्रसिद्ध होनेपर दूसरे स्थलमें वस्तुके नहीं होते सन्ते भ्रान्सज्ञान होता हुआ माना जाता है। सर्वत्र भ्रान्ति होनेवर