Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणि
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किन्तु स्वतन्त्र दोनों एक कालमें विद्यमान होनेपर अनुभाव्य अनुभावकभाव नहीं बन सकता है । यदि समानकालवाले पदार्थोंमें भी किसी दूसरे योग्यता विशेषसे अनुभाव्यपना माना जावेगा तो उस योग्यता विशेषका भी उस शुद्धज्ञानसे अतिरिक्त होरहेका असम्भव है । अतः उस योग्यताविशेको भी अनुभाव्यपना असिद्ध है । यदि इस योग्यताविशेषको दूसरे योग्यताविशेषसे अनुभाव्यपना माना जावेगा तब तो अनवस्था दोष होगा । अर्थात् बुद्धिमें ही अनुभावकपनेकी योग्यता है, विषय में नहीं । और विषयमें अनुभाव्यपनेकी योग्यता है, बुद्धि में नहीं । इसके नियम करानेके लिये पुनः दूसरी योग्यताकी आवश्यकता पडेगी, इसी प्रकार दूसरी योग्यताकी व्यवस्था करने के लिये तीसरी विशेषयोग्यताकी आकांक्षा बढती जावेगी । यह अनवस्थादोष हुआ और दूसरे प्रकारोंकी शरण लेना यहां संभव भी नहीं है । विशेष यह है कि हम शुद्धाद्वैतवादियोंके यहां जब बुद्धिसे अतिरिक्त कोई भिन्नकाल या समकालमें रहनेवाला पदार्थ ही नहीं माना गया है तो बुद्धिसे निराला अनुभव कराने योग्य भला कौन हो सकता है ? अतः उस योग्यताविशेषकी भी सिद्धि नहीं हो सकती है ।
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नापि बुद्धेर्ब्राहकत्वेन परोऽनुभवोऽस्ति सर्वथानुभाव्यवदनुभावकस्यासम्भवे तदघनात् । ततो बुद्धिरेव स्वयं प्रकाशते ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् । तदुक्तं - " नान्योनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्यानानुभवोऽपरः । ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते " इति । अत्रांच्यते । बुद्धिका ग्राहकपनेसे अतिरिक्त कोई दूसरा अनुभव भी तो नहीं है । सभी प्रकारोंसे अनुभाव्य पदार्थके समान अनुभव करनेवाले ज्ञानके असम्भव होजानेपर वह अनुभव होता नहीं घटता है । अर्थात् दो पदार्थ होवें तब तो एक अनुभाव्य और दूसरा अनुभावक माना जावे । किन्तु अकेले शुद्ध ज्ञान माननेपर अनुभावक द्वारा अनुभाव्यका अनुभव होता है इस प्रकार करण, कर्म और क्रिया इन तीनोंका विवेचन असम्भव है । तिस कारण अकेली शुद्धबुद्धि ही स्वयं प्रकाशमान होती रहती है। कारण कि वह ग्राह्यपने और ग्राहकपनेसे रहित है । जैनोंसे माने गये ज्ञानमें ग्राह्य अंश और ग्राहक अंश हमको तो इष्ट नहीं है। सो ही हमारे यहां कहा है कि बुद्धिके द्वारा कोई उससे भिन्न पदार्थ अनुभव कराने योग्य नहीं है, तथा बुद्धिसे भिन्न उसका फल कोई अनुभव भी नहीं है । ग्राह्यभाव और ग्राहकभावोंसे सर्वथा खाली होनेके कारण वह बुद्धि स्वयं ही अकेली चमकती रहती है । मूलग्रन्थ में बुद्धिका विशेषण ग्राह्यग्राहकविवेक है। यहां विवेक शब्द विचारने अर्थ में प्रसिद्ध बिल्ट धातुसे बनाया जाता है। तत्र तो जैनोंके समान सौत्रान्तिक पण्डित बुद्धिमें ग्राह्यग्राहक अंशोंको स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु पृथग्भाव अर्थको कहनेवाली विचिर् धातुसे विवेकशद्वको बनाकर वैभापिक बौद्ध बुद्धिमें ग्राह्य, ग्राहक अंशोंका अभाव मान लेते हैं । कामधेनु वेद के समान अनेकार्थक वाक्योंसे अपने अपने मनमाने अर्थ निकाले जा रहे हैं। जो कि हिंसा, अहिंसा, सर्वज्ञ, सर्वज्ञाभाव, पौरुषेय अपौरुषेय आदिके समान परस्पर में विरुद्ध हैं । इस प्रकार स्यान्मतंसे आगे प्रारम्भकर अपनी
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