Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थाचन्तामाणिः
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हो आवेगा । क्योंकि चक्षु, पुण्य, पाप, ये विज्ञानके कारण हैं, किन्तु इनसे उत्पन्न हुआ ज्ञान तो अतीन्द्रिय चक्षुः और · कर्मोके क्षयोपशमको नहीं जान पाता है । अतः ज्ञानका कारणभूत विषय तजन्यज्ञानसे जाना ही जाय यह व्याप्ति बनाना अच्छा नहीं है । इस दोषको दूर करनेके लिये तज्जन्मपनेके साथ अपने आकारको देनेमें समर्थपनेसे ज्ञेयपना यदि सौत्रान्तिकों द्वारा माना जावेगा। अर्थात् इन्द्रियां और अदृष्टज्ञानके जनक अवश्य हैं, किन्तु ज्ञानमें अपने आकारोंका समर्पण नहीं करते हैं । अतः ज्ञान इनको नहीं जानता है । घट, पट, आदिक विषय तो अपने आकारोंको ज्ञानके लिये अर्पण कर देते हैं, अतः ज्ञान उन घट आदिकोंको जान लेता है। इस प्रकार अपने आकारको सौंप देनेकी उस सामर्थ्यसे भी वह अनुभाव्यपना यदि साधा जावेगा तो भी समान अर्थके अव्यवहित उत्तर कालवर्ती ज्ञानसे व्यभिचार हो जावेगा । भावार्थ-~-एक सांचेमें ढले हुए घट, कटोरा या एकसी मुद्रित पुस्तकें अथवा रुपये, पैसे आदि इनमें से एकको देख लेनेपर बची हुयी सभी एक जातिकी समान वस्तुओंका प्रत्यक्षज्ञान हो जाना चाहिये । कारण कि सदृश अर्थके उत्तरक्षणवर्ती-ज्ञानमें परिशिष्ट पदार्थोके भी आकारोंका अर्पण हो गया है । सन्मुख रखे हुए घटको जाननेवाले घटज्ञानमें प्रकृत घटने अपना आकार दे दिया है । यद्यपि बचे हुए देशान्तर कालान्तरवर्ती अन्य सदृश घडोंने अपना आकार स्वकीय उन्मुखतासे इस ज्ञानको अर्पित नहीं किया है तो भी सर्वथा समान पदार्थाका प्रतिबिम्ब एकसा ही होता है । जब कि ज्ञानमें समान आकार आ चुका है । तो परिशिष्ट पदार्थोको जाननेमें क्यों आनाकानी की जा रही है ? दूसरी बात यह है कि पहिले ज्ञानमें भले ही बचे हुये सदृश पदार्थोका आकार न आया हो किन्तु पहिले ज्ञानके उत्तरकालमें उत्पन्न हुआ ज्ञान जैसे प्रकृत घटको आकारके बलसे जानता है, उसी प्रकार आकार देनेकी सामर्थ्य होनेके कारण परिशिष्ट पदार्थीको भी क्यों न जान लेवें ? उत्तरवर्ती ज्ञानमें प्रकृत घट और समान घटोंका आकार बडी सुलभतासे आ जाता है। जैसे कि एक प्रतिबिम्ब (तस्बीर ) से दूसरी तस्वीर उतारनेपर सदृशोंका आकार आ जाना अनिवार्य है । अतः तजन्यत्वके समान तदा- . कारता भी ज्ञेयपनेकी नियामक नहीं है । अकेले तज्जन्यत्वका इन्द्रिय, अदृष्ट आदिसे व्यभिचार है तथा अकेले तदाकारपनेका समान अर्थोसे व्यभिचार है। यानी घटका ज्ञान अनेक समान घटोंको भी जान लेवे, किन्तु चक्षु द्वारा जानता नहीं है। तथा तज्जन्यत्व और तदाकारता इन दोनोंको मिलाकर यदि ज्ञेयपनेका नियम करानेवाला माना जावेगा तो समान अर्थके अव्यवहित उत्तरवर्ती ज्ञानसे व्यभिचार होगा । समनन्तरज्ञान परम्परा करके सदृश पदार्थोसे उत्पन्न हुआ भी है और सदृश पदार्थोके आकार ( तस्वीर ) को भी धारण करता है, तो फिर प्रकृत अर्थोको क्यों नहीं जानता है ! बताओ। जिस ज्ञानका उपादान कारण घटज्ञान है वह सदृशघटके अव्यवहित उत्तरकालवर्ती ज्ञानको सानन्द जान लेवें, तदाकारता तदुत्पत्ति दोनों घटज़ाते हैं, किन्तु जानता तो नहीं यह व्यभिचार हुआ, इन दोषोंके निवारणार्थ यदि तज्जन्यत्व और तदाकारता इन दोनोंको उस