Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तस्वार्थश्लोकवार्तिके -
ग्रन्थोक्त कारिका पर्यन्त शुद्ध विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध अपना मन्तव्य कह चुके हैं । ऐसा साटोप कटाक्ष कर चुकने पर अब यहां आचार्य महाराज करके ज्ञानको सांश सिद्ध करनेके लिये प्रकरण कहा जाता है।
नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्या नानुभवोपरः। ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् वयं सा न प्रकाशते ॥ १३ ॥
बौद्धोंकी कारिकामेंसे ही एव के स्थानमें न को धरके एक अक्षरका परिवर्तन कर आचार्य महाराज बौद्धमतके निरासार्थ वार्तिक कहते हैं कि बुद्धिके द्वारा कोई ज्ञेयरूप अनुभाव्य नहीं है
और बुद्धिका कोई न्यारा अनुभवरूपी फल नहीं है । ऐसी दशामें ग्राह्यग्राहक भावोंसे रिक्त होनेके कारण वह बुद्धि स्वयं कभी प्रकाशमान नहीं हो रही है, किन्तु तीनों अंशोंसे तदात्मक होती हुयी बुद्धि सदा चकचका रही है । प्रदीपको यदि बिब्बीमें भी बन्द कर दिया जाय तो भी उसमें प्रकाश्यपना और प्रकाशकपना विद्यमान है । बुद्धि अपने पतिपुत्र समान ग्राहक, ग्राह्य, अंशोंसे युक्त होरही सदा सुहागिन है । आजतक किसीको भी ग्राह्य, ग्राहक, गृहीति, अंशोंसे रहित बुद्धिका प्रतिभास नहीं हुआ है। अतः बुद्धि (ग्राहिका ) के द्वारा अनुभाव्य ( ग्राह्य ) का प्रकाश ( गृहीति ) होना मान लेना चाहिये । अनुभवसिद्ध पदार्थोका अपलाप करना न्याय्य नहीं है । सारांश यह है कि बुद्धिसे जानने योग्य पदार्थ निराला है । उसका अनुभव भी बुद्धिसे कथंचित् भिन्न हो रहा है । ग्राह्य ग्राहक स्वभावोंसे सहित बुद्धि सदा प्रकाशित हो रही है।
न हि बुद्ध्यान्योऽनुभाव्यो नास्ति सन्तानान्तरस्याननुभाव्यत्वानुषंगात् । कुतश्चिदवस्थितेरयोगात् । तदुपगमे च कुतः स्वसन्तानसिद्धिः? पूर्वोत्तरक्षणानां भावतोननुभाव्यत्वात् ।
बुद्धिके द्वारा कोई अन्य विषय अनुभव कराने योग्य नहीं है यह नहीं कहना। क्योंक अपनी सन्तानसे अतिरिक्त दूसरी देवदत्त, जिनदत्त, आदिकी सन्तानोंको अनुभवमें नहीं प्राप्त होनेपनका प्रसंग हो जावेगा । बुद्धिके अतिरिक्त किसी भी अन्य उपायसे दूसरे सन्तानोंकी व्यवस्था नहीं हो सकती है। बुद्धिके द्वारा अन्य सन्तानोंको नहीं जानने योग्यपनको यदि स्वीकार कर लोगे तो बताओ अपनी सन्तानकी सिद्धि भी कैसे करोगे ? क्योंकि अन्य सन्तानोंके समान अपनी सन्तानके -आगे पीछे होनेवाले क्षणिक परिणामोंको भी वास्तविकरूपसे अनुभाव्यपना नहीं आता है । अर्थात् बौद्धमतमें क्षणिक बुद्धि अपने एक क्षणके परिणामरूप होती हुयी चमकती रहती है । वह अपने पहिले और पछेिके अनेक परिणामोंको प्रकाशित नहीं करती है । अतः बुद्धिके द्वारा ज्ञेय नहीं होनेके कारण अन्य सन्तानोंका जैसे अभाव कर दिया जाता है तैसे ही अपनी सन्तानका भी अभाव हो जावेगा, केवल एक समयका क्षणवर्ती परिणाम ही सिद्ध हो सकेगा । चालिनी न्यायसे उसका भी अभाव अनिवार्य है। देवदत्त यदि जिनदत्तकी सन्तानका अभाव मानता है तो जिनदत्त भी देवदत्तकी सन्तानको नहीं जानता है, इस प्रकार शून्यवाद छा जावेगा। दूसरोंकी सन्तानको मेटनेवाला स्वयं