Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
साध्यके न रहनेसे हेतु व्यभिचारी होता किन्तु वास्तविक रूपसे विद्यमानपनेको ही हम साध्य कह रहे हैं। भावार्थ-कल्पनासे नहीं आरोपितपने साध्यमें इन्द्रियोंसे जन्यपना हमको इष्ट नहीं है। यद्यपि घट, पट, आदि अवयवियोंमें इन्द्रियजन्य ज्ञानसे वेध होकर अकल्पितपना है, फिर भी सुख, ज्ञान, आदिसे व्यभिचार होनेकी सम्भावनाका लक्ष्य कर शुद्ध अनारोपितपनेको यानी परमार्थरूपसे सत्पनेको ही हमने साध्य किया है।
ननु परमार्थसतोऽवयविनः स्पष्टज्ञानेन वेदनं सर्वावयववेदनपूर्वकं कतिपयावयवेदन पूर्वकं वावयवावेदनपुरःसरं वा ? न तावदाद्यः पक्षः सर्वदा तदभावप्रसंगात्, किंचिज्ज्ञस्य सर्वावयववेदनासम्भवात् । तदवयवानामपि स्थवीयसामवयवित्वेन सकलावयववेदनपुरःस. रत्वे तस्य परमाणूनामवयवानामवेदनेन तदारब्धशताणुकादीनां वेदनाननुषंगादभिमतपर्वतादेरपि वेदनानुपपत्तेः । एतेन द्वितीयपक्षोपाकृतः, कतिपयपरमाणुवेदने तवेदनानुपपत्तेरविशेषात् । तृतीयपक्षे तु सकलावयवशून्ये देशेवयविवेदनप्रसंगस्ततो नावयविनः स्पष्टज्ञानेन वित्तिः । यतः स्पष्टज्ञानवेद्यत्वं तत्त्वतः सिद्धयेत् । इत्यपि प्रतीतिविरुद्धं, सर्वस्य हि स्थवीयानर्थः स्फुटतरमवभासत इति प्रतीतिः।
बौद्ध पुनः कुचोध उठाते हैं कि जैनोंसे माने गये वास्तविक सत् रूप अवयवीका स्पष्ट ज्ञान करके जो जानना हो रहा है । वह सम्पूर्ण अवयवोंका पहिले ज्ञान होकर पश्चात् उत्पन्न होता है ? अथवा कितने ही अवयवोंको पहिले जानकर पीछे पूरे अवयवीका ज्ञान हो जाता है ? या पूर्वमें किसी भी अवयवको न जानकर झट अवयवीका ज्ञान हो जाता है । बताओ ! तिन तीन पक्षोंमेंसे पहिले आदिका पक्ष ग्रहण करना तो आप जैनोंको ठीक नहीं पडेगा । क्योंकि सदा ही उस अवयवीके अभावका प्रसंग हो जावेगा। सर्वज्ञके ही सम्पूर्ण सूक्ष्म, स्थूल, अवयवोंका ज्ञान होना बन सकता है । कुछ थोडासा जाननेवाले हम लोगोंके तो सम्पूर्ण अवयवोंका ज्ञान होना असम्भव है। उन घट, पट आदिक अवयवियोंके कपाल, तन्तु, आदिक अवयव भी तो अतीव स्थूल होनेके कारण अवयवी हैं । अतः उन अवयवरूप अवयवियोंका ज्ञान भी पहिले सम्पूर्ण कपालिका, छोटे तन्तु, आदि सम्पूर्ण अवयवोंके ज्ञान हो चुकनेपर ही होगा, इस प्रकार घडणुक, पञ्चाणुक, आद्रिके क्रमसे परमाणुरूप अवयवोंतक पहुंचना पडेगा। अन्तमें प्राप्त हुए परमाणुरूप अवयवोंका ज्ञान नहीं होनेके कारण उनसे मिलाकर बनाये गये सौ परमाणुओंके शताणुक आदिकोंका ज्ञान न हो सकेगा। इस प्रसंगकी आपत्ति होनेसे अभीष्ट बडे पर्वत, समुद्र, आदिक अवयवियोंका भी ज्ञान होना न बन सकेगा। मूल ही नहीं तो शाखा कहांसे बन सकती है। परमाणुओंका ज्ञान न होनेसे द्वयणुकका और द्वयणुकका ज्ञान न होनेसे त्र्यणुकका ज्ञान न होगा। इस प्रकार कारणभूत नीचेके अवयवोंका ज्ञान न होनेसे कार्यरूप ऊपरके महाअवयवीका ज्ञान न हो सकेगा। इस कथनसे जनोंके दूसरे पक्षका भी खण्डन हो चुका समझा लिया जाता है। सुनिये।