Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
लड्डू भूखको दूर नहीं कर सकते हैं । किन्तु प्रकरणमें घट, पट, सौड थम्भ, शरीर, आदि अवयवी पदार्थोसे जलधारण, शीत दूर करना, छतको लादे रहना, अंग उपांगोंका जकडे रखना आदि अर्थक्रियायें हो रही हैं। तीसरी बात यह है कि स्थिर स्थूल साधारण, अवयवी पदार्थका प्रत्यक्ष प्रमाण ज्ञानद्वारा स्पष्ट संवेदन हो रहा है । कल्पित पदार्थ झूठे ज्ञानोंसे अस्पष्ट भले ही दीख जाय किन्तु वे स्पष्ट ज्ञानसे नहीं जाने जाते हैं, प्रकरणमें अवयवी तो स्पष्टज्ञान द्वारा जाना जारहा है । प्रमाणोंके द्वारा प्रमेयकी परमार्थरूप व्यवस्थाका निर्णय कर दिया जाता है ।
शक्यन्ते हि कल्पनाः प्रतिसंख्यानेन निवारयितुं नेन्द्रियबुद्धय इति स्वयमभ्युपेत्य कल्पनान्तरे सत्यप्यनिवर्तमानं स्थवीयान्सं एकमवयविनं कल्पनारोपितं ब्रुवन् कथमवयवेऽवयविवचनः ।
___ जब कि बौद्ध यह मान रहे हैं कि कल्पनायें तो उनके प्रतिकूल अन्य कल्पनाओंसे निवारण की जा सकती हैं, किन्तु इन्द्रियजन्य ज्ञान तो अन्य प्रतिकूल ज्ञानोंसे हटाये नहीं जा सकते हैं, क्योंकि इन्द्रियजन्यज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं अच्छे हैं। इस प्रकार स्वयं स्वीकार करता हुआ भी बौद्ध अन्य कल्पनाओंके होते सन्ते भी नहीं निवृत्त हो रहे अधिक स्थूल एक अवयवीको कल्पनासे आरोपित कह रहा है, वह बौद्ध भला किस प्रकार अवयवमें अवयवीको कल्पित कहनेवाला समझाया जा सकता है ? । अर्थात् नवीन कल्पनाओंसे अन्य कल्पनाओंका तो नाश हो जाता है । धूली पटलमें धूम या भापपनेकी कल्पनाएं तो नष्ट हो जाती हैं। किन्तु प्रमाणज्ञानोंका नाश नहीं हो पाता है । अन्य कल्पनाओंके होनेपर भी अवयवीका ज्ञान निवृत्त नहीं हुआ है । अतः प्रमाण ज्ञानसे जाना गया अवयवी वस्तुभूत पदार्थ मानना पडेगा । बौद्धोंने एक कल्पना ज्ञान और दूसरा निर्विकल्पक प्रमाण ज्ञान ये दो ज्ञान तो एक समय में होते हुए नहीं माने हैं । किन्तु दो कल्पना ज्ञान एक ही समयमें होते हुये नहीं माने हैं, जब कि दूसरे कल्पनाज्ञानके होते हुए भी अवयवीका ज्ञान हो रहा है निवृत्त नहीं होता है तो सिद्ध हुआ कि वह एक अवयवीका ज्ञान प्रमाणज्ञान है । कल्पित नहीं हैं।
यदि पुनरवयविकल्पनायाः कल्पनान्तरस्य वाशुवृत्तेविच्छेदानुपलक्षणात् सहभावाभिमानो लोकस्य । ततो न कल्पनान्तरे सति कल्पनात्मनोप्यवयविनोऽस्तित्वमिति मतिः तदा कथमिन्द्रियबुद्धीनां कचित्सहभावस्ताविकः सिद्धयेत् । तासामप्याशुवृत्तेपिच्छेदानुपलक्षणात्सहभावाभिमानसिद्धेः।
यदि फिर बौद्धोंका यह मन्तव्य होय कि अंशोंका निर्विकल्पक प्रत्यक्षज्ञान करते समय अवयवीका कल्पना ज्ञान हुआ। उस कल्पना ज्ञानके अव्यवहित उत्तर समयमें अत्यन्त शीघ्र दूसरा कल्पनाज्ञान वर्त गया। कुम्हारके चक्रभ्रमणके समान शीघ्रता होनेसे मध्यवर्ती देश, कालका अन्तराल स्थूल दृष्टिवाले लोकको नहीं दीखा । अतः एक समयमें साथ उत्पन्न हो गये दो कल्पना