Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
एकस्य भवतोऽक्षीणकारणस्य यदुद्भवे ।
क्षयो विरोधकस्तस्य सोऽर्थो यद्यभिधीयते ॥ ८६ ॥ तदा नामादयो न स्युः परस्परविरोधकाः । सकृत्सम्भविनोऽर्थेषु जीवादिषु विनिश्चिताः ॥ ८७ ॥
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परिपूर्ण कारणवाले एक पदार्थ के होते हुए जिसके प्रगट होनेपर उस एकका क्षय हो जाय, वह अर्थ उसका विरोधक कहा जाता है । यदि यह विरोधकका सिद्धान्त लक्षण कहा जाता है तब तो जीव आदिक पदार्थोंमें उसी समय एक बार में भले प्रकार होते हुए निश्चित किये गये नाम, स्थापना, आदिक पदार्थ परस्परमें विरोधक न हो सकेंगे । भावार्थ — अन्धेरेके परिपूर्ण कारण मिल जानेसे रात्रिमें अन्धेरा हो रहा है । प्रातःकाल सूर्यके उदय होनेपर उस अंधेरेका नाश हो जाता है । अतः सूर्यप्रकाश अन्धेरेका विरोधक है । आतप और अन्धेरा एक स्थानपर नहीं ठहरते हैं, अतः इनमें सहानवस्थान विरोध मानना सर्वसम्मत है । किन्तु अनेक स्थलोंपर नाम, स्थापना आदि एक साथ रहते हुए निर्णीत हो रहे हैं । एकके उत्पन्न हो जानेपर दूसरेका क्षय नहीं हो जाता है । अतः विरोधका सिद्धान्तलक्षण न घटनेसे इनमें परस्पर विरोध नहीं कहा जा सकता है ।
न विरोधो नाम कश्चिदर्थो येन विरोधिभ्यो भिन्नः स्यात् केवलमक्षीणकारणस्य सन्तानेन प्रवर्तमानस्य शीतादेः क्षयो यस्योद्भवे पावकादेः स एव तस्य विरोधकः । क्षयः पुनः प्रध्वंसाभावलक्षणः कार्यान्तरोत्पाद एवेत्यभिन्नो विरोधिभ्यां भिन्न इव कुतश्चिद्व्यवहियत इति यदुच्यते तदापि नामादयः कचिदेकत्र परस्परविरोधिनो न स्युः सकृत्सम्भवित्वेन विनिश्चितत्वात् ।
विरोध नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, जिससे कि वह विरोधियोंसे भिन्न माना जाय, वैशेषिक जन विरोधको स्वतन्त्र तत्त्व मानते हैं और विरोधियोंसे उसको भिन्न विचार करते हैं । धर्मीरूप सात पदार्थोंसे अतिरिक्त अवच्छेदकत्व, विरोध आदि धर्मस्वरूप पदार्थ अनेक हैं । किन्तु जैन - सिद्धान्त से वह मन्तव्य खण्डित हो जाता है । निमित्त मिल जानेपर किन्ही वस्तुओंका विशिष्ट परिणाम हो जाना ही विरोध है। विरोधका केवल व्याख्यान इतना ही है कि कारणोंकी क्षति नहीं होते हुए सन्तान प्रवर्तित चले आ रहे शीत, अन्धकार, आदिका नाश जिस अग्नि, सूर्य, आदिके प्रगट हो जानेपर हो जाता है वे अग्नि, आदिक ही उस शीत आदिकके विरोधक माने जाते हैं । अर्थात् अग्निके आ जानेपर शीतका क्षय होना विरोध है । यह क्षय होना फिर कोई स्वतंत्र तत्त्व नहीं है किन्तु प्रध्वंसाभावरूप एक पर्याय है । वैशेषिकोंके यहां माना गया ध्वंस पदार्थ तुच्छ अभाव