Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वाचिन्तामाणिः
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इस कथनसे वैशेषिकोंके इस मन्तव्यका भी खण्डन हो गया कि शीत स्पर्श, और उष्णस्पर्श इन दो गुणोंमें या सुगन्ध, दुर्गन्ध आदि दो गुणोंमें रहनेवाला विरोध दोनोंका विशेषण है, तथा उत्क्षेपण और अवक्षेपण या आकुञ्चन और प्रसारण अथवा भ्रमण और एक दिग्गमन आदि दो दो कर्मों ( क्रियाओं ) में रहता हुआ विरोध उनका विशेषण है। एवं आत्मद्रव्य और रूप गुण, या आकाशद्रव्य और रस गुण, अथवा वायुद्रव्य और गन्ध गुण, आदि द्रव्य और गुणोंमें विरोध इनका विशेषण हो रहा है । तथैव परम महत्त्व और गमन या ज्ञान और उत्क्षेपण अथवा शद्ब और रेचन आदि गुण और कर्ममें रहने वाला विरोध इतना विशेषण है, अथवा आकाश द्रव्य और प्रसारण या पृथ्वी और भ्रमण अथवा वायु और अपक्षेपण आदि द्रव्य और कर्म इन दो दोमें विरोध विशेषण हो रहा है । देखो, वैशेषिकोंके इस सिद्धान्तका खण्डन यों हो गया कि सामान्य पदार्थके अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ वैशेषिकोंके यहाँ ऐसा नहीं माना गया है कि जो दो गुणोंमें या दो कर्मोंमें अथवा द्रव्य गुण दोमें या गुणकर्म दोमें एवं द्रव्य कर्म दोमें रह सके, पदार्थत्व धर्म छहों भावोंमें रहता है, केवल नियत दोमें नहीं । हां ! गुणत्व, कर्मत्व और सत्ता जातियां ऐसी हैं जो कि दो गुण आदिमें रहती हैं, किन्तु ये जातियां भी सम्पूर्ण गुण या द्रव्य, गुण, कर्म इनका सर्वोपसंहार करके रहती हैं, नियतगुण या परिमित कर्मों में नहीं ठहरती हैं । नियत दो हीमें रहनेवाली कोई पर अपर जाति वैशेषिकोंने नहीं मानी है । दूसरी बात यह है कि इस प्रकरणमें विरोधको जातिरूप स्वीकार करना भी अच्छा नहीं पड़ेगा, जातिका कार्य दोमेंसे एकका नाश कर देना नहीं है । जननीके समान जाति तो मित्रताको पुष्ट करती है शत्रुभावको नहीं । तथा जातिकी अपेक्षासे रूप, रस आदिको भी द्विष्ठपनेके नियमका प्रसंग होगा, यह हम कह चुके हैं। तीसरी बात यह भी है कि आप वैशेषिकोंने विरोधको पृथक्त्व, विभागके अनुरूप स्वतन्त्र गुणपदार्थ माना है। " गुणादिनिर्गुणक्रियः " सम्पूर्ण गुण निर्गुण होते हैं यानी गुणमें गुण नहीं रहता है । कर्म आदिमें भी गुण नहीं ठहरता है। गुण तो द्रव्यमें ही रहते हैं। अतः दो गुणोंमें या दो कर्मों में कोई विरोधस्वरूप गुण नहीं रह सकता है । अतः विरोधको गुणपना मानलेने पर गुण आदिमें विरोधके रहनेका असम्भव है। तथैव एक द्रव्य और एक गुणमें भी कोई एक गुण नहीं रहता है। एक गुण
और एक कर्ममें तो विरोध एक ओरेका भी नहीं रह पाता है, तथा एक द्रव्य और एक कर्ममें भी विरोधरूप गुणके रहनेका विरोध है तो फिर नाम आदिमें परस्पर विरोध हो जानेका प्रसंग विना विचारे क्यों उठाया जाता है ? यहां भावस्वरूप विरोधका विचार कर दिया गया है । - तस्याभावरूपत्वे कथं सामान्यविशेषभावो येनानेकविरोधिविशेषणभूतविरोधविशेषव्यापि विरोधसामान्यमुपेयते । ____ अब यदि वैशेषिक उस विरोधको भावपदार्थ न मानकर अभावरूप पदार्थ मानेंगे तो विरोधमें सामान्य और विशेषपना भला कैसे हो सकेगा ? जिससे कि अनेक अनुयोगी प्रतियोगी रूप