Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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काल, और आकारोंका नियमित होना नियत कारण विना नहीं हो सकता है। वैसे तो सदा होनेवाले कार्योको भी कारणोंकी आवश्यकता है किन्तु कचित् कभी कभी होनेवाले कार्योको तो कारणविशेषकी स्पष्टरूपसे अधिक आवश्यकता है । तिस कारण उक्त विशिष्ट बुद्धियोंका द्रव्य आदिकसे भिन्न कोई निराला हेतु होना चाहिये । अतः इनका सयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, समवेतसमवाय, इन पांच सम्बन्धोंसे बचा हुआ छठा विशेषणविशेष्यभाव सम्बन्ध माना जाता है। वह सम्बन्ध सात पदार्थोसे अतिरिक्त बचे हुए धर्मस्वरूप अन्य पदार्थोंमें गिना जावेगा। जैसे कि हेतु और साध्यका अविनाभाव सम्बन्ध सात पदार्थोसे अतिरिक्त पदार्थ है। इस प्रकार समवाय अथवा अभावके समान विरोधका भी किसीमें विशेषणपना सिद्ध हो जाता है। अतः हम वैशेषिकोंका तद्विशेषणत्वे सति यह हेतुका दल सिद्ध हो गया। अब आचार्य कहते हैं कि ऐसा माननेपर तो उस विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्धको भी आप दोमें रहनेवाला धर्म सम्बन्ध होता है, एतदर्थ अपने आश्रयविशेषोंमें रहनेवाला आधेय मानोगे तो वह कहां किस सम्बन्धसे ठहरता हुआ विशेषण होगा ? बताओ । यहां भी सम्बन्धपनेकी रक्षार्थ दूसरे विशेष्यविशेषणभावसे उस सम्बन्धको वर्तता हुआ ऐसा कहोगे तो उस दूसरे सम्बन्धको भी अपने विशेष्यमें विशेषणपना तीसरे विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्धसे माना जावेगा । इस प्रकार अनवस्थादोष हो जानेसे विशेष्यकी प्रत्तिपत्ति कैसे भी न हो सकेगी। क्योंकि विशेषणको भले प्रकार जाने विना विशेष्यका ज्ञान होना इष्ट नहीं किया है । आपके यहां भी कहा है कि विशेषणका ग्रहण किये विना विशेष्यं को विषय करनेवाली बुद्धि नहीं होती है । अर्थात् विशिष्ट बुद्धिमें विशेष्य विशेषण और संसर्ग इन तीनका जानना आवश्यक माना गया है। विशेषणका ज्ञान तो अत्यधिक आवश्यक है । और सम्बन्ध भी जब दोमें रह लेगा, तभी वह मध्यवर्ती होता हुआ सम्बन्ध हो सकता है । जैसे कि पुरुषमें दण्ड रहता है। उनका योजक संयोग सम्बन्ध विचारा दण्ड और पुरुष दोनोंमें समवाय सम्बन्धसे वृत्तिमान् है, तथा वह समवाय भी सम्बन्ध तभी हो सकेगा, जब कि अपने संयोग
और दण्ड या संयोग और घट स्वरूप आधारोंमें विशेषण होकर ठहर जाय । अतः संयोग और दण्डके मध्यमें पड़ा हुआ समवाय भी विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्धसे अपने आधारभूत संयोग और समवायमें रहेगा। वह विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्ध भी अपने आधारभूत विशेष्य और विशेषणमें दूसरे विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्धसे रहेगा और वह भी तीसरेसे रहेगा। इस प्रकार चौथे पांचमें आदिकी कल्पना करना बढते हुए अनवस्था दोष हुआ । पुरुष, दण्ड, संयोग, समवाय, विशेप्यविशेषणभाव, पुनः विशेष्यविशेषणभाव आदि सम्बन्धों से पहिले दो दोके बीचमें। पडा हुआ अप्रिम तीसरा सम्बन्ध अपने विशेष्यविशेषणमें वर्तेगा। तभी सम्बन्ध बन सकेगा, सम्बन्ध द्विष्ट यानी दोमें रहनेवाला होता है । चांदी या सोनेका टांका जबतक दोनों टुकडोंमें नहीं चुपकेगा तबतक दोनोंको मिला नहीं सकेगा, तब तो उत्तरोत्तरके सम्बन्ध विशेषण होते जावेंगे । उनके