Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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मर चुका, शेष पानी तो निकम्मे नौकर या कार्य न होनेसे ठलुआ बैठे नौकरके समान दीख रहा है यह अधिक पानी और थोडी आगकी अवस्था बतलायी है, किन्तु जहां थोडा पानी और आम अधिक है वहां थोडे पानीको नष्ट करनेवाली आग भी नष्ट हो गयी है। अर्थात् पानी और आग अन्य पुद्गल पर्यायोंको धारण कर चुके हैं, शेष अग्नि जो दीख रही है वह मरे हुए सैनिकोंसे बचे हुये जीवित सैनिकोंके सम है इत्यादि । विरोधके फलस्वरूप उत्तरवर्ती परिणाम ये सब विरोधियोंसे कथञ्चित् अभिन्न हैं। देवदत्तकी मृत्यु उसका ही उत्तरवर्ती परिणाम है । विषका नाशकपना स्वभाव भी विषकी पर्याय है । विष और देवदत्तमें बन्ध हो जानेपर सर्वथा भेद नहीं रहता है। सर्वथा भिन्न पडा हुआ विष देवदत्तको नहीं मार सकता है । दूरसे प्रयुक्त किये गये मन्त्र, तन्त्र, भी सर्वथा मिन्न होते हुए विनाशक नहीं होते हैं । अन्यथा चाहे जिस किसीका विनाश कर डालेंगे, आत्माके साथ कर्म नोकर्मबन्ध भी ऐसा ही है । रूप और रसका परस्परपरिहारस्थिति नामका विरोध तो एक द्रव्यमें दोनोंका अभेद होनेपर ही बनता है । अतः समझलो कि नियत व्यक्तियोंका नियत व्यक्तियोंसे विरोध करना तभी बनेगा जब कि उनमें पडे हुए विरोधको कथञ्चित् अभिन्न माना जावेगा। इस कारण स्याद्वादियोंके ऊपर कोई भी उलाहना नहीं आता है। सर्वथा एकान्तवादियोंके यहां अनेक दोष आते हैं । सह्य और विभ्यका पर्वतपनेसे अभेद है, यदि इनका पृथ्वीपना, द्रव्यपना, पर्वतपना इन धर्मोसे भी सर्वथा भेद माना जावेगा तो उन दोनोंमेंसे एक व्यक्ति तो पर्वत, द्रव्य, और पृथ्वी नहीं रह सकेगा । सर्वथा भिन्न सरीखे दीख रहे नियमित पिता, पुत्रमें ही जन्यजनक भाव है । अश्व और मनुष्यका तथा कबूतर और गायका जन्यजनक भाव सम्बन्ध क्यों नहीं है। यहां भी कथञ्चित् अभेदका अवलम्ब लिये विना वैशेषिकोंकी दूसरी कोई गति नहीं है । राजाका पुरुष, देवदत्तका घोडा आदि सब स्थानोंपर यही समझ लो कि कथञ्चित भेदाभेद होनेपर ही सम्बन्ध व्यवस्था है, यह गम्भीरतत्त्व है । इसको प्रमेयकमलमार्तण्डमें भलीभांति पुष्ट किया है । इस कारण श्रीविद्यानन्द स्वामीने पिच्यासीवीं वार्तिकमें बहुत अच्छा कहा था कि विरोधके समान नाम, स्थापना, आदिकोंका अपने अपने आश्रयोंसे कथञ्चित् भिन्नपना और कथञ्चित् अभिन्नपना साधन करना युक्त है ।
नामादिभिया॑सोनामनर्थक इति चेन्न, तस्य प्रकृतव्याकरणार्थत्वादमकृताव्याकरणार्थत्वाच्च । भावस्तम्भप्रकरणे हि तस्यैव व्याकरणं नामस्तम्भादीनामव्याकरणं च अप्रकृतानां न नामादिनिक्षेपाभावेऽर्थस्य घटते, तत्संकरव्यतिकराभ्यां व्यवहारमसंगात् ।
किसीका कहना है कि नाम, स्थापना, द्रव्य और भावोंसे पदार्थोका न्यास करना. व्यर्थ है। आचार्य समझाते हैं कि सो यह तो न कहना। क्योंकि प्रकरणमें पड़े हुए ही पदार्थके व्युत्पादन करनेके लिये और प्रकरणमें नहीं प्राप्त हुए पदार्थोकी नहीं व्युत्पत्ति करानेके लिये प्रयोजकता होनेके कारण वह न्यास करना सार्थक है। छत. या छप्परको धारण करनेके लिये तो वर्तमानमें वैसी