Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
३१५
प्रवृत्ति, प्रतिपत्ति, और प्राप्ति होना पाया जाता है । सामान्यको छोडकर विशेष नहीं रहता है और विशेषको छोडकर सामान्य भी नहीं ठहरता है । हां ! क्वचित् एक प्रधान दूसरा गौण होजाता है। जाति, गुण, आदिमेंसे एक एकको प्रधान मानकर विषय करते हुए शद्बोंके पांच भेद मान लेनेमें हमारा कोई विरोध नहीं है । वे सब सामान्यविशेषात्मक वस्तुको ही कह रहे हैं। अतः समचिनि व्यवहार करनेवाले जीवोंका अन्य निमित्तोंकी अपेक्षा न करके संज्ञा करनेको नामनिक्षेप कहते है । नाम की गयी वस्तुकी कहीं प्रतिष्ठा करना स्थापना है । स्थापनामें आदर, अनुग्रहकी आकांक्षा हो जाती है । नाममें नहीं । सामान्यरूपसे नाम करनेपर ही स्थापनाकी प्रवृत्ति मानी गयी है । भविष्य पर्यायके अभिमुख वस्तुको द्रव्य कहते हैं । द्रव्य निक्षेपके भेद करके द्रव्यका तीनों कालोंमें अनुयायीपना सिद्ध किया है । द्रव्यकी अनन्त पर्यायोंमें एक सन्तानरूप डोरा पिरोया हुआ है । सम्पूर्ण द्रव्योंमें जीव प्रधान है और जीवका ज्ञानगुण प्रधान है । अतः उपयोग और अनुयोगकी अपेक्षाका विचार कर आगम, नोआगमद्रव्यको साधा है । वस्तुकी वर्तमान पर्याय भाव है। आदिके तीन निक्षेप द्रव्यकी प्रधानतासे हैं । और अन्तका भावनिक्षेप तो पर्यायकी प्रधानतासे पुष्ट किया गया है । द्रव्य और पर्याय दोनोंका समुदाय वस्तु है । तत् शब्दकी सार्थकता दिखलायी गयी है। शब्दकी अपेक्षासे निक्षेप संख्यात हैं । समान जातिवाले विकल्पज्ञानकी अपेक्षासे असंख्यात हैं और अर्थकी अपेक्षासे निक्षेप अनन्त हैं । उन सब भेदोंका चारोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। न्यास
और न्यस्यमान इनका कथञ्चित् भेद अभेद है । नाम निक्षेप और स्थापना आदि निक्षेपोंके विषयोंमें भी कथंचित् भेद है। चारों निक्षेपोंकी प्रवृत्ति एक स्थानपर पायी जा सकती है। इस प्रकरणमें विरोधका दृष्टान्त देकर भेद अभेदको सिद्ध किया है। सर्वथा भिन्न या अभिन्न पडा हुआ विरोध किसी कामका नहीं है । विरोध पदार्थकी अच्छी विवेचना की गयी है । भेदवादी बाबदूक,
नैयायिकोंके फटाटोपका निरास करते हुए विरोधियोंसे कथञ्चित् अभिन्न विरोधको सिद्ध कर दिया है । नाम, स्थापना, द्रव्य, भावोंसे निक्षेपकी व्यवस्थाको माने विना प्रकृतकी सिद्धि और अप्रकृतका निराकरण नहीं हो सकता है । बडा भारी घुटाला मच जावेगा । नाम किये गये सिंहको मंगानेपर लानेवाला शिष्य मुख्य सिंहको ले आवेगा, अथवा सिंहके खिलौनेको भी लाकर कृतकृत्य बन जावेगा। इन सब झगडोंको मेटनेके लिये जैनसिद्धान्तमें निक्षेपकी व्यवस्था इष्ट की गयी है । नाम आदिक प्रत्येक निक्षेपसे अपने अपने योग्य न्यारी न्यारी अर्थक्रियाओंका होना सिद्ध है । अतः चारों ही वस्तुभूत हैं । एक एक निक्षेपको माननेवाले एकान्तवादियोंके मन्तव्य समुचित नहीं हैं । चारोंमेंसे एकको भी माने विना लोकव्यवहार नहीं सध सकता है । इस प्रकार जैनसिद्धान्तमें ज्ञापक साधनोंके प्रकरण होनेपर नाम, स्थापना द्रव्य भावोंसे पदार्थोका न्यास करनारूप अत्युपयोगी सिद्धान्तका इस सूत्रद्वारा निरूपण कर दिया गया है ।