Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित पुरुषों के प्रकरण होनेपर प्रतिष्ठित पुरुषोंका नाम पहिले लिया जाता है। वहां अप्रतिष्ठितका पहिले नाम लेनेवाला पुरुष फूहरा समझा जाता है। .
न ह्यल्पान्तरादभ्यर्हितं पूर्व निपततीति कस्यचिदप्रसिद्धं लक्षणहेतोरित्यत्र हेतुशद्वादल्पान्तरादपि लक्षणपदस्य बद्दचोऽभ्यर्हितस्य पूर्वप्रयोगदर्शनात् ।
प्रकृष्ट रूपसे अल्पस्वरवाले पदकी अपेक्षा अधिक पूज्यका वाचक पद पूर्वमें प्रयुक्त हो जाता है। यह नियम किसीके यहां भी अप्रसिद्ध नहीं है। यानी सभी शब्दशास्त्रोंमें प्रसिद्ध है। प्रसिद्ध अष्टा ध्यायी व्याकरणमें देखिये कि क्रियाके परिचय कराने वाले लक्षण और हेतु अर्थमें वर्तमान धातुसे हुए लट्के स्थानमें शतृ और शानच् हो जाते हैं । यहां "लक्षणहेत्वो" इस सूत्रमें लक्षण और हेतु या हेतु और लक्षण ऐसा इतरेतर द्वन्द्व करनेपर स्वन्त एवं अल्पस्वरवाले भी हेतु शद्बसे बहुत स्वरवाले किन्तु अधिकपूज्य लक्षणपदका पहिले प्रयोग होना देखा जाता है।
कथं पुनः प्रमाणमभ्यर्हितं नयादित्याह:
तो फिर यह बताओ कि नयसे प्रमाण अधिक पूज्य कैसे है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर आचार्य उत्तर देते हैं।
प्रमाणं सकलादशि नयादभ्यर्हितं मतम् । विकलादेशिनस्तस्य वाचकोऽपि तथोच्यते ॥३॥
वस्तुके एक देशीय विकल अंशोंको कहने वाले नयज्ञानसे वस्तुके सम्पूर्ण अंशोंको कहने वाला प्रमाणज्ञान अधिक पूज्य माना गया है । अतः उस सम्यग्ज्ञानरूप अभिधेयको कहनेवाला प्रमाणपदरूप वाचक शब्द भी तिसी प्रकार पूज्य कहा जाता है । अर्थात् सिंह पदार्थके समान सिंहज्ञान और सिंहशब्द भी जैसे कुछ भयावह है, वैसे ही प्रमाणके समान प्रमाणशद भी पूज्य माना जाता है। वास्तवमें विचारा जाय तो सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणपदार्थ पूज्य है । वाच्यकी पूज्यता वाचकमें भी उपचारसे आ जाती है । व्याकरण शास्त्रके अनुसार पदार्थोके वाचक शबोंमें ही प्रत्यय, पदकार्य, आदि हुआ करते हैं, अर्थ और शद्बका वाच्यवाचक सम्बन्ध हो जानेसे वाच्यके धर्मोका वाचकोंमें अध्यारोप होजाता है।
कथमभ्यर्हितत्वानभ्यर्हितत्वाभ्यां सकलादेशित्वविकलादेशित्वे व्याप्तिसिद्धे यतः प्रमाणनययोस्तै सिद्धयत इति चेत्, प्रकृष्टाप्रकृष्टविशुद्धिलक्षणत्वादभ्यर्हितत्वानभ्यर्हितत्वयोस्तव्यापकत्वमिति ब्रूमः। न हि प्रकृष्ट विशुद्धिमन्तरेण प्रमाणमनेकधर्मधर्मिस्वभावं सकलमर्थमादिशति, नयस्यापि सकलादेशित्वप्रसंगात् । नापि विशुद्धयपकर्षमन्तरेण नयो धर्ममात्र वा विकलमादिशति प्रमाणस्य विफलादेशित्वप्रसंगात् ।