Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
३-२-१
विनीत आक्षेपकार पूछता है कि पूज्यपन और अपूज्यपनके साथ सकलादेशीपन और विक लादेशीपनकी व्याप्ति कैसे सिद्ध करली है ? बताओ ! अर्थात् जो ज्ञान वस्तुके सम्पूर्ण अंशोंका निरूपण करनेवाला है, वह अभ्यर्हित है और जो ज्ञान वस्तुके कुछ अंशका प्ररूपण करता है वह अपूज्य है । इस प्रकारकी व्याप्तियां आप जैनोंने किस प्रकार सिद्ध कर ली हैं ? बतलाइये । जिससे कि वे अपने अपने हेतुओंसे व्यापक हो रहे पूज्यपना और अपूज्यपना साध्यको प्रमाण और नयरूपी पक्षमें सिद्ध कर देवें । व्याप्तियोंको सिद्ध किये विना प्रमाण और नयमें पूज्यपना अथवा अपूज्यपना सिद्ध नहीं हो सकता है, ऐसा चोध करनेपर तो हम जिनाशासनके गौरवसे युक्त होकर यह स्पष्ट उत्तर कहते हैं कि पूज्यपनेका प्रयोजक अतिशययुक्त श्रेष्ठ विशुद्धि होना है और न्यून विशुद्धि होना अपूज्यपनेका लक्षण है । अतः सकलादेशीयपनका व्यापक पूज्यपना है और विकलादेशीपनका व्यापक अपूज्यपना है । बढती हुई अधिक श्रेष्ठ विशुद्धिके विना प्रमाणज्ञान अनेक धर्म और धर्मीरूप स्वभावोंसे तादात्म्य रखनेवाले सम्पूर्ण अर्थका निरूपण नहीं कर सकता है । अन्यथा थोडी विशुद्धिसे युक्त नयको भी पूरे वस्तुके समझानेवालेपनका प्रसंग हो जावेगा । तथा त्रिशुद्धिकी घटवारी (अल्पता) के बिना नयज्ञान एक अंशरूप विकल अकेले धर्म या केवल धर्मीका कथन नहीं कर सकता है । अन्यथा प्रमाणको भी विकलादेशीपनका प्रसंग होगा । भावार्थ —— जैसे विशिष्ट प्रकाश होनेके कारण सूर्य अनेक पदार्थोंका प्रकाश कर देता है और मन्द ज्योतिः होने के कारण प्रदीप अल्प पदार्थोंका प्रकाशक है । 'तिसी प्रकार ज्ञानावरणके विशिष्ट क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ प्रमाणज्ञान सकलादेशी होनेके कारण पूज्य है । और ज्ञानावरणके साधारण क्षयोपशमसे या विशिष्टजातिके छोटे क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ नयज्ञान विकलादेशी होनेसे अपूज्य है 1 स्वार्थनिश्चायकत्वेन प्रमाणं नय इत्यसत् ।
स्वार्थैकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः ॥ ४ ॥
कोई कहते हैं कि सभी ज्ञान जब अपना और अर्थका निश्चय कराते हैं। प्रमाणके समान नय भी एक ज्ञान है, तब तो अपना और अर्थका निश्चय करानेवाला होनेके कारण नयज्ञान मी प्रमाण हो जावेगा । ग्रन्थकार समझाते हैं कि इस प्रकार किसीका कहना समीचीन नहीं है । क्योंकि नयका लक्षण अपना और अर्थका एकदेशरूप से निर्णय करना है, ऐसा पूर्व आचार्योंकी परिपाटीसे स्मरण होता चला आया है । अर्थात् पूर्णरूप से अपनेको और अर्थको जानना प्रमाणका लक्षण है । तथा अपनेको और अर्थको एकदेशरूपसे जानना नयका लक्षण आर्ष आम्नाय अनुसार मानते आये 4
नयः प्रमाणमेव स्वार्थ व्यवसायात्मकत्वादिष्टममाणवद् विपर्ययो वा ततो न प्रमाणनययोर्भेदोऽस्ति येनाभ्यर्हितेतरता चिन्त्या इति कश्चित् तदसत् । नयस्य स्वार्थैकदेशलक्षreda स्वार्थनिश्वापकत्वासिद्धेः ।
41