Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
यदि पुनः कर्मस्थक्रियापेक्षया विरुद्धयमानत्वं विरोधः स शीतद्रव्यस्य विशेषणं, कर्तृस्थक्रियापेक्षया विरोधः स उष्णद्रव्यस्य । विरोधसामान्यापेक्षया विरोधस्योभयविशेषणत्वोपपत्तेर्द्विष्ठत्वं तदा रूपादेरपि द्विष्टत्वनियमापत्तिस्तत्सामान्यस्य दिष्ठत्वात्, रूपादेर्गुणविशेषात् तत्सामान्यस्य पदार्थान्तरत्वात् न तदनेकस्थत्वे तस्यानेकस्थत्वमिति चेत् तर्हि कर्मकर्तृस्थाद्विरोधविशेषात् पदार्थान्तरस्य विरोधसामान्यस्य द्विष्टत्वे कुतस्तद्विष्ठत्वं येन द्वयोर्विशेषणं विरोधः ।
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फिर आप वैशेषिक यदि यों कहें कि सकर्मक धातुकी क्रिया कर्ताीमें रहती है । और कर्म में भी रहती है, जैसे देवदत्त भातको पकाता है यहां पच्धातुका वाच्य अर्थ पचनक्रिया देवदत्तमें रहती है और भातमें भी रहती है, तैसे ही शीतद्रव्यका उष्णद्रव्य विरोध करता है। यहां कर्ममें स्थित हो रही क्रियाकी अपेक्षासे विरोधे जा रहे - शीतद्रव्यका विरोधागयापनरूप विरोध है वह शीतद्रव्यरूप - कर्मका विशेषण है । और कर्ता में ठहरी हुयी क्रियाकी अपेक्षासे विरोध करनेवाले उष्णद्रव्यका विरोधकपनारूप विरोध है वह उष्णद्रव्यका विशेषण है । तथा विरोधसामान्यकी अपेक्षासे वह विरोध शीतद्रव्य और उष्णद्रव्य इन दोनोंका विशेषण हुआ बन जाता है । अतः विरोधको दो आदिमें रहनापन भी सिद्ध हो गया । अब आचार्य कहते हैं कि तब तो रूप, रस आदिको भी दोमें रहनेपनके नियमका प्रसंग होगा। क्योंकि रूप आदिकके सामान्यको भी दोमें रहनापन बन जावेगा। यानी व्यक्तिस्वरूप गुण भलें ही एक द्रव्यमें रहता है, किन्तु रूपका सामान्य रूपत्व तो अनेकोंमें रहता हुआ अनेकका विशेषण हो जायगा । रूपसे रूपसामान्य भिन्न तो नहीं माना गया है । इस पर यदि वैशेषिक यों कहें कि रूप, इस आदि तो गुणविशेष हैं और उनमें रहनेवाला रूपत्व, रसत्व, सामान्य स्वरूप जाति तो उस गुणपदार्थसे भिन्न चौथा सामान्य पदार्थ हम वैशेषिक के यहां माना गया है। अतः उन न्यारे सामान्योंके अनेकमें स्थित रहनेपर भी उन रूप, रस आदि गुणोंको अनेक में स्थित रहनेपनका प्रसंग नहीं होगा । आचार्य बोलते हैं कि ऐसा पक्ष लेने पर तो विरोध भी दोमें रहनेवाला न हो सकेगा । कर्ममें और कर्ता में ठहरे हुए व्यक्तिस्वरूप विशेषविरोधसे भिन्नपदार्थ स्वरूप विरोध सामान्यविरोधत्व के दोमें ठहरते हुए भी उस विरोध विशेषका दोमें ठहरनापना भला कैसे माना जा सकता है ? जिससे कि विरोधभाव दोनोंका विशेषण हो सके । अर्थात् विरोधत्व जाति भलें ही दोनों विरुद्धय विरोधकस्वरूप कर्ता, कर्म में या दोनों में रहनेवाले दोनों विरोधोंमें ठहर जाय, किन्तु विरोध तो रूप, रस, आदिकके समान दोमें ठहरनेवाला विशेषण नहीं हो सकता है ।
एतेन गुणयोः कर्मणोर्द्रव्यगुणयोः गुणकर्मणोः द्रव्यकर्मणोर्वा विरोधो विशेषणं इत्यपास्तं, विरोधस्य गुणत्वे गुणादावसम्भवाच्च ।