Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्स्वार्थचिन्तामणिः
यहां भेदवादी शंकाकार वैशेषिक अपने ऊपर आये हुए दोषोंका यों समाधान करता है कि सर्वथा भिन्न पदार्थ होता हुआ भी विरोध दोनों विरोधियोंका विरोधक हो जाता है ( प्रतिज्ञा )। क्योंकि वह उनका विशेषण होता संता विरोधज्ञानका विषय है ( हेतु ) । यहां व्यतिरेकदृष्टान्त तो इस प्रकार है कि जो पदार्थ उन विरोधियोंका विरोधक नहीं है वह तिस प्रकार विशेषण होता हुआ विरोधज्ञानका विषय भी नहीं है, जैसे कि भिन्न पडा हुआ दूसरा तटस्थ अर्थ है । तिस कारण सभी भिन्न पडे हुए पदार्थ तो सबके विरोध करनेवाले नहीं होते हैं, किन्तु कोई कोई विशिष्ट पदार्थ ही विरोधक होते हैं। आचार्य समझाते हैं कि यह तो वैशेषिकोंको नहीं कहना चाहिये। क्योंकि हेतुका अंश पक्षमें नहीं रहता है । शीत और उष्णका विरोध प्रसिद्ध है। उस विरोधको उन विरोधियोंका विशेषणपना नहीं बनता है । कारण कि वैशेषिकोंके यहां भाव और अभाव दो पदार्थ माने गये हैं । आधारता, कार्यता, आदि धर्मोसे रहित होनेके कारण अभाव पदार्थ तुच्छ है और भाव पदार्थ स्वभावोंसे सहित होनेके कारण अतुच्छ है । विरोधको आपने भाव पदार्थ माना है । और वह कार्यता, कारणता आदि धर्मोंसे सहित होनेके कारण अतुच्छ स्वरूप है । ऐसा विरोध यदि शीत और उष्ण द्रव्यरूप विरोधियोंका विशेषण माना जा रहा है तब तो एक समयमें उन दोनोंके न दीखनेका प्रसंग होगा। दोनोंमें रहनेवाला कार्यकारी विरोध तो युगपत् दोनों का नाश कर देवेगा । " सुन्दोपसुन्दन्यायसे या शूकरसिंह” न्यायसे दोनों लड मरेंगे । जब आधार ही नष्ट हो गये, ऐसी दशामें वह विरोध विशेषण होकर भला कहां रहेगा ? अब यदि वैशेषिक एक ओर रहते हुये विरोधको शीतद्रव्यका ही विशेषण माने, तब वह शीतद्रव्य तो बना रहेगा, किन्तु उष्णद्रव्य नष्ट हो जावेगा, और तिस प्रकार तो वह शीतद्रव्य ही विरोधक हुआ, उष्णद्रव्य शीतका विरोधक न हो सकेगा । जो विरुद्धय है वह भला विरोधक कैसे हो सकता है ? सिंहको हरिण नहीं मार डालते हैं । तथा तैसा होनेपर तो एकमें स्थित रहनेके कारण वह विरोध पदार्थ दोमें रहने वाला नहीं कहा जावेगा और एक हीमें ठहरनेवाला तो विरोध नहीं हो सकता है । अन्यथा सबका सदा ही वह विरोध होते रहनेका प्रसंग होगा । अकेले अपने स्वरूपको लिये हुए पदार्थ सदा विद्यमान रहते ही हैं । वस्तुतः पृथक्त्व, विरोध, विभाग, द्वित्व, संयोग, आदिक भाव दो आदि पदार्थोमें ही रहते हुए माने गये हैं, अकेलेमें नहीं । इस उक्त कथन करके वह विरोध उष्णद्रव्यका ही विशेषण है, यह भी खण्डित कर दिया गया समझ लेना चाहिये । यानी उष्णद्रव्यका विशेषण होनेसे विरोधक उष्णद्रव्य तो शीतद्रव्यको नष्ट कर देवेगा। किन्तु शीतद्रव्य अपनेमें विरोध न होनेके कारण उष्णद्रव्यका नाश न कर सकेगा । तथा अकेले उष्णद्रव्यमें रहनेवाला विरोध बन भी तो नहीं सकता है । इस प्रकार वैशेषिकोंसे कहे गये अनुमानके हेतुका सत्यन्तदल सिद्ध न हो सका । हेतु असिद्ध हेत्वाभास है।