Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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और दूसरी बात यह भी है कि बौद्धोंसे मान लिया गया और बिना विचारे सिद्ध कर लिये ये धर्मी तथा धर्मका अबाधितत्वाभाव ( कर्त्ता ) धर्म, धर्मी के प्रमाण द्वारा साधे गये अबाधितत्व (कर्म) का विरोध नहीं करता है । कल्पनारूप व्यवहार द्वारा सिद्ध कर लिये गये पदार्थ से परमार्थरूप करके सिद्ध हुए पदार्थका बाधित हो जाना इष्ट नहीं किया है । क्या मिट्टीसे बनाया गया नौला वस्तुभूत सर्पको बाधा पहुंचा सकता है ? पत्रपर लिख दी गयी अग्नि शीतको दूर नहीं कर सकती है, तैसे ही बौद्धोंके द्वारा कल्पनारूप अनुमानसे जान लिया गया धर्मधर्मीका बाधितत्वाभाव भी प्रमाणप्रसिद्ध अबाधितत्त्वका बाधक नहीं हो सकता है, और यदि कल्पित पदार्थोंसे वास्तविक अर्थोक व बावित होना इष्ट कर लोगे तो बौद्धोंके द्वारा स्वयं अपने इष्टकी सिद्धि न हो सकेगी । जो कुछ तत्त्व वे मानेंगे कल्पना किये गये उसके विरुद्ध तत्त्वसे तिसका खण्डन हो जावेगा । पत्र में सिंह सिर पर बकरी बैठा देनेका चित्र खींचना सरल है, किन्तु वनमें स्वतन्त्र विचरते हुए सिंह के सिरपर छिरियाका बैठकर किलोल करना दुःसाध्य है ।
कथं विकल्पाध्यवसितस्यावाधितत्वं प्रमाणसिद्धमिति चेत्, दृष्टस्य कथम् ? बाधकाभावादिति चेत्, तत एवान्यस्यापि । न हि दृष्टस्यैव सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य सर्वथा बाधकाभावो निश्चेतुं शक्यो न पुनरध्यवसितस्येति ब्रुवाणः स्वस्थः प्रतीत्यपलापात् ।
बौद्ध पूंछते हैं कि विकल्पसे निर्णीत किया गया धर्म, धर्मीका अबाधितपना प्रमाणोंसे सिद्ध है यह आप जैन ने कैसे जाना ? कहिये । ऐसा पूंछनेपर हम भी बौद्धोंसे पूंछते हैं कि निर्विकल्पक प्रत्यक्षरूप दर्शनसे जान लिये गये स्वलक्षणरूप दृष्टका अबाधितपना तुम बौद्धोंने कैसे जाना ? बताओ । दृश्यका अबाधितपना तो बाधक प्रमाणोंके न होनेसे जान लिया गया है । यदि आप सौगत ऐसा कहोगे तो हम जैन भी कहते हैं कि तिस बाधकाभाव होनेसे ही विकल्पसे निर्णीत किये गये दूसरे विकल्पयका भी अबाधितपना जान लिया जाता है । बौद्ध कहता है कि निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे देखे गये पदार्थका ही सब स्थानोंमें सर्व कालमें सब जीवोंके सभी प्रकारसे बाधकका अभाव निश्चय किया जा सकता है किन्तु फिर अध्यवसायरूप ज्ञानसे जाने गये विकल्प्यका बाधकाभाव निश्चय नहीं किया जा सकता है । आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार कह रहा बौद्ध स्वस्थ नहीं है। उसकी सुधि बुद्धि मारी गयी है, क्योंकि ऐसा मत्तता प्रयुक्त नियम करनेसे प्रमाणप्रसिद्धि प्रतीतियोंको छिपाना पडेगा । अर्थात् सर्व देश, सर्व काल, सर्व व्यक्तियोंको बाधक प्रमाण नहीं उत्पन्न होने से प्रत्यक्षज्ञानमें जैसे प्रमाणता आजाती है, तैसे ही सर्वत्र, सर्वदा, सबको, बाधक प्रमाणका उदय न होनेसे विकल्पज्ञानको भी प्रमाणता आजावेगी, ऐसा ही लोकमें प्रतीतियोंसे प्रसिद्ध हो रहा है । हां ! 1 जहां बाधक प्रमाणका उत्थान हो जाता है, वह प्रत्यक्ष भी प्रमाण नहीं है और न विकल्पज्ञान ही प्रमाण है । भ्रान्त और अभ्रान्तका विवेक तो सभी ज्ञानोंमें मानना आवश्यक है ।