Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ लोकवार्तिक
द्वितीय पक्षके अनुसार नाम आदिकोंका आत्मभूत नहीं होता हुआ पृथक् विरोध भी विरोधक नहीं हो सकता है । क्योंकि वह विरोध सर्वथा भिन्न पडा हुआ है, जैसे कि अनेक तटस्थ पडे हुए भिन्न पदार्थ विरोधक नहीं होते हैं । अथवा विपरीत व्यवस्था हो जाओ! यानी मिन्न पडा हुआ विरोध भी विरोधक मान लिया जावे तो वहां पडे हुए अनेक उदासीन पदार्थ भी चाहे जिसके विरोधक हो जावेंगे । सभी स्थानोंपर कार्मणवर्गणायें, आकाश, कालाणुयें, जीवद्रव्य, धर्म आदि पदार्थ तो सुलभतासे पाये जाते हैं । यदि न्यारे पडे हुए उदासीन पदार्थ विरोधक नहीं हैं तो निराला पड हुआ विरोध भी विरोधक नहीं होगा । न्याय सबके लिए समान होता है। अथवा भिन्न विरोध यदि पदार्थोका विरोध करे तो पदार्थ ही विरोधका विरोध क्यों नहीं कर डालें ? देखो, जिसमें विरोध रहता है उसको अनुयोगी कहते हैं और जिसकी ओरसे विरोध है वह प्रतियोगी कहलाता है । विरोध संयोग आदिक पदार्थ एक एक होकर स्थूलदृष्टिसे दो आदि वस्तुओंमें रहते हैं। और सूक्ष्मदृष्टि से दो संयोग या दो विरोध ही अनुयोगी और प्रतियोगी दो पदार्थोंमें रहते हैं। हां ! विशिष्ट पर्याय बन जानेपर हम संयोगको एक मान लेते हैं। नैयायिक या वैशेषिक एक ही संयोग गुणको पर्याप्त सम्बन्धसे दो आदिमें वर्तरहा स्वीकार करते हैं । और समवाय सम्बन्धसे प्रत्येकमें वृत्ति मानते हैं।
भिन्नाभिन्नो विरोधश्चेकिं न नामादयस्तथा ।
कुतश्चित्तद्वतः सन्ति कथञ्चिद्भिदभिभृतः ॥ ८५॥
विरोधके आधारभूत माने गये अनुयोगी, प्रतियोगीरूप विरोधियोंसे विरोध पदार्थ यदि कथञ्चित् भिन्नाभिन्न है, तब तो तिसी प्रकार उन कथञ्चित् भेदको और अभेदको धारण करनेवाले तथा नाम आदि करके विशिष्ट किन्ही पदार्थोंसे नाम, स्थापना, आदिक भी किसी अपेक्षासे भिन्नाभिन्न हो जाते हैं । भावार्थ-विरोधियोंमें विरोध जैसे भिन्न अभिन्नरूप होकर ठहर जाता है, तैसे ही एक पदार्थमें नाम आदिक भी चारों युगपत् रह जाते हैं। फिर नाम आदिकोंका विरोध कहां रहा ? अर्थात् कुछ भी विरोध नहीं है।
विरोधो विरोधिभ्यः कथञ्चिद्भिन्नोऽभिन्नश्वाविरुद्धो न पुनर्नामादयस्तद्वतोऽर्थादिति ब्रुवाणो न प्रेक्षावान् ।
तृतीयपक्ष अनुसार विरोधियोंसे कथञ्चित् भिन्न और कथाञ्चित् अभिन्न रहता हुआ विरोध तो अविरुद्ध हो जाय, किन्तु फिर उन नाम आदि वाले पदार्थसे वे नाम स्थापना आदिक कथाञ्चित भिन्न अभिन्न न होंय, ऐसा कह रहा पक्षपातग्रस्त पुरुष तो विचारशालिनी बुद्धिसे युक्त नहीं है। कोरा आग्रही है।