Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
२८२
तत्वार्यकोकवार्तिके
जाता है। इस प्रकार वाक्यके अर्थका आगे पीछेसे सम्बन्ध हो जाना सिद्ध है । वे सम्यग्दर्शन आदिक और जीव आदिक सभी प्रकरणमें प्राप्त होरहे हैं । यहां इस सूत्रके अव्यवहित पूर्वमें होनेसे जीव आदिक सात तत्त्वोंका ही उस न्याससे उचित सम्बन्ध होनेका प्रसंग होगा और सम्यग्दर्शन आदिकोंका न्याससे सम्बन्ध न हो सकेगा। ऐसा न समझना ! क्योंकि उन जीव आदिकोंका तो अभी विशेषरूपसे आदेश कर दिया है, व्यापक प्रकरण तो सम्यग्दर्शन आदिका ही है। अतः वे जीवादिक प्रकरणमें प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन आदिकोंके बाधक नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि सम्यग्दर्शन आदिक ही प्रधान हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये विषयी हैं। इनके विषय होनेके कारण जीव आदिक अप्रधान हैं, अतः प्रधानोंके साथ न्यास सम्बन्ध होना भी छूट नहीं सकता है । तथा सम्यग्दर्शन आदिकोंके ही साथ नाम आदिकों द्वारा न्यासके सम्बन्ध होनेकी आपत्ति होगी यह भी नहीं समझना, क्योंकि अत्यन्त निकट होनेके कारण जीवादिकोंके साथ भी उस न्यासका बढिय सम्बन्ध हो जाना घटित हो जाता है। आचार्य समझाते हैं कि यहांतक जो कोई जो कुछ मानरहा था वह मन्तव्य इस कथनसे खण्डित कर दिया है " प्रधानाप्रधानयोः प्रधाने सम्प्रत्ययः " प्रधान और अपधानके प्रकरण होनेपर प्रधानमें ही ज्ञान होता है । इस न्यायके अनुसार दूर पडे हुए किन्तु प्रधान ऐसे सम्यग्दर्शन आदिकोंका नाम आदिक न्यासोंसे संबन्ध हो जाय इसके लिये सूत्रमें तत् शब्दका ग्रहण किया है। तथा “ विप्रकृष्टाविप्रकृष्टयोरविप्रकृष्टस्यैव ग्रहणम् ” निकटवर्ती और दूरवर्तीका प्रकरण उपस्थित होनेपर निकटवर्तीका ही ग्रहण होता है । इस परिभाषाके अनुसार अप्रधान किन्तु निकट पडे हुए जीव आदिकोंका भी न्याससे सम्बन्ध हो जाय । एतदर्थ सूत्रमें तत् शद्वका ग्रहण किया गया है । उस तत् शब्दके ग्रहण नहीं करनेपर प्रत्यासत्तिसे प्रधान अधिक बलवान् होता है । इस न्यायसे केवल सम्यग्दर्शन आदिकोंके साथ ही न्यासके सम्बन्ध होनेका प्रसंग दूर नहीं किया जा सकता था। भावार्थ-" प्रत्यासत्तेः प्रधानं बलीयः " यह परिभाषा प्रबल है। अतः न्यासका सम्बन्ध सम्यग्दर्शन आदिसे ही होता, जीव आदिकोंके साथ नहीं होता, किन्तु तत् शब्द व्यर्थ पडा । गम्भीर अर्थके प्रतिपादक शद्वोंको कहनेवाले सूत्रकारकी एक मात्रा भी व्यर्थ नहीं होनी चाहिये । अतः तत् शब्द व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है कि यहां प्रधान और निकटवर्ती अप्रधान सभी पदार्थोका न्यास होना इष्ट है । स्वांशमें तत्शब्द चरितार्थ भी होगया और दूसरे इन्द्र आदि जीवोंमें या अन्य तत्वोंमें न्यास करनेका फल प्राप्त हो गया।
नन्वनन्तः पदार्थानां निक्षेपो वाच्य इत्यसन् । नामादिष्वेव तस्यान्तर्भावात्संक्षेपरूपतः ॥ ७१ ॥
यहां कोई शंका करता है कि पदार्थोके निक्षेप अनन्त कहने चाहिये, आप जैनोंने चार ही क्यों कहे ! आचार्य समझाते हैं कि यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि उन अनन्त निक्षेपोंका संक्षेप