Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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तिस कारण हम विद्यानन्द आचार्यने कारिकामें बहुत अच्छा कहा था कि नाम, स्थापना, द्रव्य ये तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे कहे गये हैं और भावनिक्षेप तो पर्यायार्थिक नयकी प्रधानतासे कहा गया है, क्योंकि वह भावनिक्षेप वर्तमानकालमें होनेवाली केवल विशेष पर्याय स्वरूपका स्पर्श करता है। ___ तदेतैर्नामादिभिासो न मिथ्या, सम्यगित्यधिकारात् । सम्यक्त्वं पुनरस्य सुनयैरधिगम्यमानत्वात् ।
तिस प्रकार इन नाम, स्थापना, द्रव्य, और भावों करके किया गया निक्षेप झूठा नहीं है । क्योंकि आदिके सूत्रसे सम्यक् इस प्रकारका अधिकार ( अनुवृत्ति) चला आ रहा है । अर्थात् नाम आदिकों करके सम्पूर्ण पदार्थोका समीचीन न्यास ( अभ्यवहार्यपना ) होता है । इस निक्षेपको समीचीनपना तो फिर श्रेष्ठ नयों करके जानागयापन होनेके कारण है, यानी प्रमाणस्वरूप श्रुतज्ञानके विशेष अंश नय हैं । श्रुतज्ञानसे पदार्थका निर्णय कर विशेष अंशोंको असाधारण रूपसे जाननेके लिये नयज्ञान उठाये जाते हैं । संज्ञी जीवके नयज्ञान उत्पन्न होते हैं । सुनयोंके द्वारा वस्तुधर्मोका निर्णय कर नाम स्थापना, द्रव्य और भावोंसे तत्त्वोंका समीचीन न्यास हो जाता है । अतः चारों ही निक्षेपक समीचीन हैं।
तेषां दर्शनजीवादिपदार्थानामशेषतः। इति सम्प्रतिपत्तव्यं तच्छद्वग्रहणादिह ॥ ७० ॥
इस सूत्रमें पूर्वका परामर्श करनेवाले तत् शब्दके ग्रहण करनेसे उन दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा जीव आदिक सात तत्त्व, इन सम्पूर्ण पदार्थोका शेषरहितपने करके न्यास हो जाता है, यह भले प्रकार विश्वास कर लेना चाहिये ।
यदमस्त कश्चित् तदग्रहणं सूत्रेऽनर्थकं तेन विनापि नामादिभिासः । सम्यग्दर्शनजीवादीनामित्यभिसम्बन्धसिद्धेस्तेषां प्रकृतत्वान्न जीवादीनामेव अनन्तरत्वात्तदभिसम्बन्धपसक्तिस्तेषां विशेषादिष्टत्वात् प्रकृतदर्शनादीनामबाधकत्वात् तद्विषयत्वेनाप्रधानत्वात् च । नापि सम्यग्दर्शनादीनामेव नामादिन्यासाभिसम्बन्धापत्तिः जीवादीनामपि प्रत्यासन्नत्वेन तदभिसम्बन्धघटनादिति । तदनेन निरस्तम् । सम्यग्दर्शनादीनां प्रधानानामप्रत्यासन्नानां जीवादीनां चाप्रधानानां प्रत्यासमानां नामादिन्यासाभिसंबन्धार्थत्वात् तद्ग्रहणस्य। तदभावे प्रत्यासत्तेः प्रधानं बलीय इति न्यायात् सम्यग्दर्शनादीनामेव तत्प्रसंगस्य निवारमितुमशक्तेः।
.. कोई एक वादी जो यह मान बैठा था कि सूत्रमें तत् शद्बका ग्रहण करना व्यर्थ है, क्योंकि उस तत् शबके विना भी नाम आदिकों करके सम्यग्दर्शन आदिक और जीव आदिकोंका न्यास हो
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