Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
तीसरा न्यास कल्पित करना पडेगा, और तैसा होने पर तो उसकी अवस्थिति भला कहां हो सकेगी ? यानी अनवस्था दोष हो जावेगा। इस प्रकार कोई पण्डित शंका कर रहे हैं।
न हि जीवादयः पदार्था नामादिभियस्यन्ते, न पुनस्तेभ्यो भिन्नो न्यास इत्यत्र विशेषहेतुरस्ति यतोऽनवस्था न स्यात् धर्मधर्मिणोर्मेंदोपगमात् । तन्न्यासस्यापि तैासान्तरे तस्यापि तासांतरे तस्यापि तैयासान्तरस्य दुर्निवारत्वादिति केचित् ।
इसका भाष्य यों है कि जीव आदिक पदार्थ ही नाम आदिकों करके निक्षेपको प्राप्त किये जाते हैं किन्तु फिर उन जीव आदिकोंसे भिन्न न्यास नामका पदार्थ नाम आदिकोंसे न्यस्यमान नहीं किया जाता है । यहां ऐसा पक्षपातग्रस्त नियम करनेका कोई विशेष कारण नहीं है, जिससे कि धर्म
और धर्मीका भेद पक्ष मानलेनेसे जैनोंके यहां अनवस्था दोष न होवे । जीवरूप धर्मीसे न्यासरूप धर्म न्यारा पदार्थ है । उस न्यास पदार्थका भी जीवके समान पुनः उन अन्य नाम, स्थापना आदि करके न्यास किया जावेगा और उस न्यासका भी उन नाम आदि करके अन्य न्यास किया जावेगा। उसका भी उन नाम आदि करके अपर न्यास किया जावेगा और इसी प्रकार उस निराले न्यासका
भी नाम आदिकों करके न्यासान्तर किया जावेगा। इस अनवस्थाका निवारण करना अत्यन्त कष्ट• साध्य है । इस प्रकार कोई कह रहे हैं । अब ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि,
तदयुक्तमनेकान्तवादिनामनुपद्रवात् । सर्वथैकान्तवादस्य प्रोक्तनीत्या निवारणात् ॥ ७५ ॥ द्रव्यार्थिकनयात्तावदभेदे न्यासतद्वतोः । न्यासो न्यासवदर्थानामिति गौणी वचोगतिः ॥ ७६ ॥
सो वह किन्हीका कहना युक्तियोंसे रहित है, क्योंकि अनेकान्तवादियोंके यहां किसी दोषका उपद्रव नहीं है । सर्वथा भेद या अभेदके एकान्तवाद पक्षका पूर्वोक्त अच्छे न्यायमार्गसे निवारण कर दिया है। हम स्याद्वादी द्रव्यार्थिक नयसे तो न्यास और न्यासवाले न्यस्यमान पदार्थका अभेद मानते हैं ऐसा होनेपर न्यासवाले अर्थोका न्यास है यह वचनका प्रयोग करना गौण है । जैसे कि शाखा और वृक्षके अभेद माननेपर शाखा ही वृक्ष है यह प्रयोगः तो मुख्य है और शाखाओंसे युक्त वृक्ष है यह व्यवहार गौण है । अभिन्न गुण गुणीके पिण्डरूप द्रव्यको विषय करनेवाला द्रव्यार्थिक नय धर्म धर्मीको एक स्वरूपसे जानता है । यहां मतुप या षष्ठीविभक्तिका प्रयोग ठीक नहीं बनता है।
पर्यायार्थनयाद्रेदे तयोर्मुख्यैव सा मता। न्यासस्यापि च नामादिन्यासष्टे नवस्थितिः ॥ ७७ ॥