Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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रूपसे नाम आदिक चार निक्षेपोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है, यानी संक्षेपसे निक्षेप चार प्रकारका है और विस्तारसे अनन्त प्रकारका है ।
संख्यात एव निक्षेपस्तत्मरूपकनयानां संख्यातत्वात्, संख्याता एव नयास्तच्छद्वानां संख्यातत्वात्। “ यावन्तो वचनपथास्तावन्तः संभवन्ति नयवादा: " इति वचनात् । ततो न निक्षेपोऽनन्तविकल्पः प्रपञ्चतोऽपि प्रसंजनीय इति चेन्न, विकल्पापेक्षयार्यापेक्षया च निक्षेपस्यासंख्याततोपपत्तेरनन्ततोपपत्तेश्च तथाभिधानात् । केवलमनन्तभेदस्यापि निक्षेपस्य नामादिविजातीयस्याभावान्नामादिष्वन्तर्भावात् संक्षेपतचातुर्विध्यमाह ।
शंकाकारके ऊपर किसीका कटाक्ष है कि निक्षेप संख्यात प्रकारका ही हो सकता है। क्योंकि उस निक्षेपके प्ररूपण करनेवाले नय संख्यात ही हैं, जब कि उन नयोंके प्रतिपादक शब्द संख्यात ही हैं, अतः वे नय भी संख्यात ही हैं। शास्त्रोंमें यों कहा है कि जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद संभवते हैं अधिक नहीं । पुनरुक्त या अपुनरुक्त सभी शवोंकी जोडकला करने पर संख्यात ही वाक्य बन सकते हैं । संख्यात बहुत बडा है । तिस कारण विस्तारसे भी निक्षेप संख्यात प्रकारका हो सकता है ऐसी दशामें व्यासरूपसे भी निक्षेपके अनन्त विकल्प होनेका प्रसंग नहीं देना चाहिये । अब आचार्य महाराज निर्णय करें देते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि सच्ची कल्पना करने वाले विकल्पज्ञानोंकी अपेक्षासे और तद्विषय अर्थोकी अपेक्षासे निक्षेपोंको असंख्यातपना बन जाता है और अनन्तपना भी सिद्ध हो जाता है । अतः हमने विस्तार की अपेक्षासे तिस प्रकार अनन्तपना कह दिया है, यानी शब्द भलें ही संख्यात हो किन्तु शद्बजन्य ज्ञान तो जातिकी अपेक्षा असंख्यात हैं और वाच्य अर्थ तो व्यक्तिकी अपेक्षा अनन्त हैं । अतः निक्षेप भी असंख्यात या अनन्त कहे जा सकते हैं। " गतोऽस्तमर्कः " सूर्य अस्त हो गया, इस एक वाक्यके अनेक प्रकरणों के अनुसार भिन्न भिन्न व्यक्तियोंको न्यारे न्यारे अर्थ या अर्थान्तर भासते हैं " एकसम्बन्धिज्ञानमपरसम्बन्धिस्मारकं । कारिकाका तात्पर्य केवल इतना है कि अनन्त भेदवाला निक्षेप भी नाम आदि चारोंसे कोई भिन्न जातीय नहीं है । अतः उन सबका नाम आदिकोंमें ही गर्भ हो जाता है । तिस कारण संक्षेपसे निक्षेपको चार प्रकारका कहा है 1
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नन्वेवम्
यहां कोई कटाक्ष सहित अनुनय करता है कि इस प्रकार तो
द्रव्यपर्यायतो वाच्यो न्यास इत्यप्यसंगतम् । अतिसंक्षेपतस्तस्यानिष्ठे रत्रान्यथास्तु सः ॥ ७२ ॥
जब संक्षेपसे न्यासका निरूपण करने लगे हो, तब तो द्रव्य और पर्याय इन दोसे ही न्यास होना कहना चाहिये, ग्रन्थकार समझाते हैं कि इस प्रकार किसीका कहना भी असंगत है ।