Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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लक्ष्य कम्बु, ग्रीवावाले घट व्यक्तिकी ओर जावेगा और उपदेश देते समय घट कहदेनेसे घटज्ञानकी ओर लक्ष्य जावेगा । प्रकरणमें उस विषयके शास्त्रज्ञानमें उपयोग लगाये हुए आत्माको आगमभाव कह दिया है सो युक्त है, इन्द्र कहनेसे सूक्ष्म एवम्भूत नयके द्वारा इन्द्रज्ञान ही लिया जाता है । अग्निका अर्थ अग्निज्ञान है । तहां जीव आदि विषयोंके उपयोग नामक उन ज्ञानोंसे सहित आत्मा ही उन उन जीव आदि आगमभावनिक्षेपों करके कहा जाता है। इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धान्तमें कोई विरोध नहीं है, तिस आगमभावसे भिन्न नोआगमभाव है जो कि जीव आदि पर्यायोंसे आविष्ट सहकारी पदार्थ आदि स्वरूप व्यवस्थित हो रहा है।
न चैवंप्रकारो भावोऽसिद्धस्तस्य बाधारहितेन प्रत्ययेन साधितत्वात् प्रोक्तप्रकारद्रव्यवत् । नापि द्रव्यादनान्तरमेव तस्यावाधितभेदप्रत्ययविषयत्वात्, अन्यथान्वयविषयत्वानुषङ्गाद्व्यवत् । - इस प्रकारका भावनिक्षेप कैसे भी असिद्ध नहीं है, क्योंक बाधारहित ज्ञानोंसे उसकी सिद्धि की जा चुकी है। जैसे कि दो प्रकारके द्रव्यनिक्षेपको भले प्रकार सिद्ध कर दिया गया है, और वह भावनिक्षेप द्रव्यनिक्षेपसे अभिन्न ही है । यह भी नहीं समझना ! क्योंकि वर्तमानकी विशेष पर्यायको ही विषय करनेवाला वह भावनिक्षेप निर्बाध भेदज्ञानका विषय हो रहा है । अन्यथा द्रव्यनिक्षेपके समान भावनिक्षेपको भी तीनों कालके पदार्थोका ज्ञान करनेवाले अन्वयज्ञानकी विषयताका प्रसंग होवेगा । भावार्थ-अन्वयज्ञानका विषय द्रव्यनिक्षेप है और विशेषरूप भेदके ज्ञानका विषय भावनिक्षेप है । भूतभविष्यत् पर्यायोंका संकलन द्रव्यनिक्षेपसे होता है। और केवल वर्तमानपर्यायोंका भावनिक्षेपसे आकलन होता है ।
नामोक्तं स्थापना द्रव्यं द्रव्यार्थिकनयार्पणात् । पर्यायार्थार्पणाद्भावस्तैासः सम्यगीरितः ॥ ६९ ॥
द्रव्यार्थिक नयकी अर्पणा करनेसे नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन निक्षेप कहे गये हैं, तथा पर्यायार्थिक नयके प्रधानताकी विवक्षासे भावनिक्षेप है । इस प्रकार उन चार निक्षेपकोंसे जीव, सम्यग्दर्शन, आदि पदार्थोका न्यास ( व्यवहृतिजनकतावच्छेदक ) होना भले प्रकार कहा गया है। .
नन्वस्तु द्रव्यं शुद्धमशुद्धं च द्रव्यार्थिकनयादेशात् , नामस्थापने तु कथं तयोः प्रवृत्तिमारभ्य प्रागुपरमादन्वयित्वादिति ब्रूमः। न च तदसिद्धं देवदत्त इत्यादि नाम्नः कचिद्वालाद्यवस्थाभेदाद्भिन्नेऽपि विच्छेदानुपपत्तेरन्वयित्वसिद्धेः । क्षेत्रपालादिस्थापनायाश्च कालभेदेऽपि तथात्वाविच्छेदः इत्यन्वयित्वमन्वयप्रत्ययविषयत्वात् ।
___ यहां शंका है कि शुद्ध द्रव्य और अशुद्धद्रव्य ये तो भले ही द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे मान लिये जावें, किन्तु नाम और स्थापना तो भला द्रव्यार्थिक नयके विषय कैसे हो सकते हैं !