Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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सम्यक्त्त्व, चारित्र आदिके शास्त्रको जाननेवाला उस शास्त्रज्ञानके उपयोगमें लगा हुआ आत्मा आगमभाव है और फिर जीव, सम्यक्त्व, आदि उन उन पर्यायस्वरूप नोआगमभाव है । यह भावनिक्षेप बाधारहित भेदज्ञानके द्वारा द्रव्यनिक्षेपसे भिन्न हो रहा है, यानी अन्वयज्ञानसे द्रव्यनिक्षेप जाना जाता है और पर्यायको जाननेवाले भेद ( व्यतिरेक ) ज्ञानसे भावनिक्षेप जाना जाता है ।
वस्तुनः पर्यायस्वभावो भाव इति वचनात्तस्यावस्तुस्वभावता व्युदस्यते । साम्प्रत इति वचनात्कालत्रयव्यापिनो द्रव्यस्य भावरूपता ।
वस्तुका पर्यायस्वरूप भावनिक्षेप है ऐसा कहनेसे उस भावनिक्षेपके अवस्तुस्वभावपनेका निराकरण हो जाता है और वर्तमानकाल वाची सांप्रत ऐसा कह देनेसे तीनोंकाल व्यापी द्रव्यको भावरूप हो जानेका खण्डन कर दिया जाता है ।
नन्वेवमतीतस्यानागतस्य च पर्यायस्य भावरूपताविरोधाद्वर्तमानस्यापि सा न . स्यात्तस्य पूर्वापेक्षयानागतत्वात् उत्तरापेक्षयातीतत्वादतो भावलक्षणस्याव्याप्तिरसंभवो वा स्यादिति चेन्न । अतीतस्यानागतस्य च पर्यायस्य स्वकालापेक्षया सांप्रतिकत्वाद्भावरूपतोपपत्तेरननुयायिनः परिणामस्य सांप्रतिकत्वोपगमादुक्तदोषाभावात् ।
यहां शंका है कि इस प्रकार भूत और भविष्य कालकी पर्यायोंको भावनिक्षेपरूपपनेका विरोध हो जानेके कारण वर्तमानकालकी पर्यायको भी वह भावरूपपना न हो सकेगा। क्योंकि वर्तमानकालकी पर्याय पूर्वपर्यायकी अपेक्षासे भविष्यकाल में है और उत्तरकालकी अपेक्षासे • वर्तमान पर्याय तो भूतकालकी है, यानी वर्तमान पर्याय भी भूत और भविष्यत् पर्यायोंमें ही अन्तर्भूत है, अतः भावनिक्षेपके लक्षणकी विशेष भावोंमें लक्षण न जानेसे अव्याप्ति हुयी, अथवा सम्पूर्ण भावों में लक्षण न जानेसे असम्भव दोष हुआ । एकान्तसे वर्तमान पर्याय कोई ठहरता ही नहीं है । नैयायिकोंके गौतमसूत्रमें पूर्वपक्षीने कहा है कि - " वर्तमानाभावः पततः पतितपतितव्यकालोपपत्तेः " वृक्षसे गिरता हुआ फल जितने आकाश प्रदेशोंमें नीचे आचुका है, उतना पतितमार्ग है । और जिन प्रदेशोंपर भविष्य में गिरना है वह पतितव्य मार्ग है । पतति यह वर्तमान में पडते रहनेको काल कुछ भी नहीं शेष रहा । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि भूतकालकी पर्याय और वर्तमानकालकी पर्याय अपने अपने कालकी अपेक्षासे वर्तमानकी ही हैं । अतः भावरूपता बन जाती है जो पर्याय आगे पीछेकी पर्यायोंमें अनुगमन नहीं करती हुयी केवल वर्तमानकालमें ही रहती है वह वर्तमान कालकी पर्याय भावनिक्षेपका विषय मानी गयी है । अतः पूर्वमें कहा हुआ कोई दोष नहीं आता है । अर्थात् वर्तमान कालको माने विना भूत, 1 भविष्य कालोंका भी अभाव हो जावेगा, वे दोनों वर्तमानकी अपेक्षासे ही सिद्ध हो सकते हैं, वर्तमान में जिनका ध्वंस है वे भूत हैं और वर्तमान में जिनका प्रागभाव है वे भविष्य हैं । अतः वर्तमान कालका एक समय मानना अत्यावश्यक हैं । अन्यथा क्षणोंके समुदायरूप भूत और भविष्यत् काल कुछ न