Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थीचन्तामणिः
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. नाप्यनुमानेन तस्य बाधस्तस्य तद्विपरीतविषयव्यवस्थापकस्यासंभवात् । यत्सत्तसर्व क्षणिकमक्षणिके सर्वथार्थक्रियाविरोधात्तल्लक्षणसत्त्वानुपपत्तेरित्यनुमानेन तद्बाध इति चेन्नास्य विरुद्धत्वात्। सत्त्वं ह्यर्थक्रियया व्याप्तं, सा च क्रमयौगपद्याभ्यां ते च कथञ्चिदन्वयित्वेन, सर्वथानन्वयिनः क्रमयौगपद्यविरोधादर्थक्रियाविरहात् सत्त्वानुपपत्तेरिति समर्थनात् ।
और अनुमान प्रमाणसे भी उस सम्यग्ज्ञानकी बाधा नहीं होती है, क्योंकि उससे विपरीत होरहे साध्यकी व्यवस्था करनेवाले अनुमानका असंभव है, यानी अनित्यको सिद्ध करनेवाला कोई अनुमान नहीं है । यदि कोई यों अनुमान बनाकर कहे कि जो जो सत् हैं, वे सभी दूसरे क्षण में नाश होनेवाले क्षणिक हैं, क्षणिकपनेसे रहित नित्यद्रव्यमें तो सभी प्रकारोंसे अर्थक्रिया होनेका विरोध है, अतः अर्थक्रियास्वरूप उस सत्पनेकी उस द्रव्यमें संघटना नहीं हो पाती है, अतः इस अनुमान करके वह प्रत्यभिज्ञान बाधित हो जाता है । आचार्य समझाते हैं कि सो इस प्रकार तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये, क्योंकि बौद्धोंका यह अनुमान विरुद्ध है, यानी सत्त्वहेतु विरुद्धहेत्वाभास है । देखिये, सत्त्वकी व्याप्ति अर्थक्रियांके साथ अवश्य है और वह अर्थक्रिया क्रम तथा युगपत्पसे होनेवाले परिणामोंके साथ व्याप्ति रखती है और वे क्रम यौगपद्य दोनों कथञ्चित् अन्वयीपनसे व्याप्ति रखते हैं । अर्थात् देवदत्त अपने बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक पुरुषार्थोंसे रस, रक्त, मांस आदिको क्रमसे बनाता है । गर्भिणी स्त्री अबुद्धि पूर्वक पुरुषार्थसे गर्भाशय में यथायोग्य कुछ-कुछ बच्चेको बना रही है । स्तनमें दूध बननेके उपयोगी साधन भी बनाये जा रहे हैं, भलें ही बच्चेका पुण्य, पाप और पुरुषार्थ भी इसमें कारण होवे, तथा देवदत्त श्वास लेना, नाडी चलाना, रक्तगति कराना, पित्ताग्निके द्वारा अन्न, जल, वात, पित्त, कफ, दोषको पचाना इत्यादि क्रियाओंको बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक पुरुषार्थोसे युगपत् कर रहा है यह सब भी तभी हो सकता है जब कि देवदत्त द्रव्य अन्वयीरूपसे कालान्तरस्थायी होवे । सभी प्रकार अन्वय नहीं रखनेवाले क्षणिक स्वलक्षणके क्रम तथा यौगपद्य होने का विरोध है । जहां क्रम, यौगपद्य, नहीं, वहां उनसे व्याप्य हो रही अर्थक्रियाका भी अभाव है और अर्थक्रियाके अभाव हो जानेसे उसका व्याप्य सत्त्व नहीं बन सकता है । इस प्रकार हेतुका समर्थन है । अतः सत्व हेतु कथञ्चित् अन्वयीपनसे व्याप्ति रखता है । क्षणिकपनसे नहीं । इस प्रकार बौद्धोंके असमीचीन अनुमानसे हमारे द्रव्यसाधक ज्ञानमें कोई बाधा नहीं आती है। जिस क्षणिकत्वकी आप सत्त्व हेतुसे सिद्धि करते हैं वह उससे होती नहीं और सत्त्व हेतुसे जिस कथञ्चित् नित्यानित्यत्वकी सिद्धि होती है वह हमारे द्रव्यनित्यत्वका बाधक नहीं किंतु सहायक ही है । सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमात्मन्येकत्वप्रत्ययं बाधत इति चेन्न एकत्र सन्ताने तस्य जातुचिदभावात् । नाना सन्तानचित्तेषु तद्दर्शनादेकसन्तानचित्तेषु सद्भाव इति चेन्न अनेक संतान विभागाभावप्रसङ्गात् । सदृशत्वाविशेषेऽपि केषाञ्चिदेव चित्तविशेषाणामेकसन्तानत्वं प्रत्यासत्तिविशेषात् परेषां नानासन्तानविभागसिद्धौ सिद्धमेकद्रव्यात्मकचित्तविशे
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