Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
नन्वेवं सति नाम्नि स्थापनानुपपत्तेस्तस्यास्तेन व्याप्तिः कथं न तादात्म्यमिति चेन्न, विरुद्धधर्माध्यासात् । तथाहि
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यहां किसीकी शंका है कि ऐसा होनेपर नामके होते हुए ही स्थापना बन सकेगी और नाम न होने पर स्थापना न बन सकेगी, तब तो उस स्थापनाकी नामके साथ तादात्म्यसम्बन्धरूप व्याप्ति क्यों न मान ली जावे ? ग्रन्थकार बोलते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना चाहिये, क्योंकि नाम और स्थापनाका विरुद्ध धर्मोके आरूढ हो जानेसे तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है । तिस हीको स्पष्टरूपसे आचार्य महाराज कहते हैं ।
सिद्धं भावमपेक्ष्यैव स्थापनायाः प्रवृत्तितः ।
तदपेक्षां विना नाम भावाद्भिन्नं ततः स्थितम् ॥ ५९ ॥
जब कि निष्पन्न हुए भावकी अपेक्षा करके ही स्थापनाकी प्रवृत्ति होती है और उस सिद्ध पदार्थकी अपेक्षाके विना नामनिक्षेप प्रवर्त रहा है । तिस कारण सिद्ध हुआ कि परमार्थरूप करके 1 नामनिक्षेप स्थापनानिक्षेपसे भिन्न है ।
किं स्वरूपप्रकारं द्रव्यमित्याह -
स्थापनासे हुए निक्षेपका स्वरूप समझकर किसी जिज्ञासुका प्रश्न है कि तीसरे द्रव्यनिक्षेपका लक्षण और भेद क्या है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं-
यात्स्वतोऽभिमुखं वस्तु भविष्यत्पर्ययं प्रति । तद्रव्यं द्विविधं ज्ञेयमागमेतरभेदतः ॥ ६० ॥
जो वस्तु भविष्यमें होनेवाली पर्यायके प्रति अपने आप अभिमुख हो रही है, वह द्रव्यनिक्षेप जान लेना चाहिये । आगम और नोआगमके भेदसे वह द्रव्यनिक्षेप दो प्रकारका है ।
न वस्त्वेव द्रव्यमबाधितमतीतिसिद्धं वा, नाप्यनागतपरिणामविशेषं प्रति ग्रहीताभिमुख्यं न भवति । पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानस्थानलक्षणत्वाद्वस्तुनः सर्वथा तद्विपरीतस्य प्रतीतिविरुद्धत्वात् । तच्च द्विविधमागमनोआगमभेदात् प्रतिपत्तव्यम् ।
कोई अवस्तु ही द्रव्य नहीं है किन्तु वस्तु ही निर्वाधप्रतीतियोंसे सिद्ध होता हुआ भविष्यपर्यायरूप करके परिणत होगा । अथवा कोई यों कहें कि भविष्य में आनेवाले विशेषपरिणामोंके प्रति वस्तु अभिमुखपनेको ग्रहण नहीं करती है, सो भी नहीं कहना क्योंकि पूर्व स्वभावोंको छोडना,