Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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उत्तरवर्ती स्वभावोंका ग्रहण करना और द्रव्यपनेसे स्थित रहना ये उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, तीन वस्तुके लक्षण हैं । क्योंकि सभी प्रकार उन तीन लक्षणोंसे विपरीत किसी भी वस्तुकी प्रतीति होनेका विरोध है । भावार्थ-दौडते हुए बढिया घोडेके समान सभी वस्तुओंमें उत्तरवर्ती स्वभावोंको ग्रहण करनेकी उत्सुकता रहती है । तदनुसार वे भविष्य परिणामोंको अभिमुख होकर ग्रहण करते रहते हैं। तथा वह द्रव्यनिक्षेप आगम, और नोआगम भेदसे दो प्रकारका समझ लेना चाहिये ।
आत्मा तत्प्राभृतज्ञायी यो नामानुपयुक्तधीः । सोऽत्रागमः समानातः स्याद्रव्यं लक्षणान्वयात् ॥ ६१ ॥
जीव, सम्यग्दर्शन, आदिके प्रतिपादक शास्त्रोंका जाननेवाला जो आत्मा इस समय उन शास्त्रोंमें उपयोग लगाये हुए ज्ञानवाला नहीं है । अर्थात् जैसे कोई न्यायशास्त्रका विद्वान् भोजन करते समय या वाणिज्य करते समय न्यायशास्त्रोंमें उपयोग लगाये हुए नहीं है, तैसे ही उस आत्माका उपयोग जीवशास्त्रके जाननेमें नहीं लग रहा है, वह यहां सर्वज्ञकी धारावाही आम्नायके अनुसार आगमद्रव्य कहा गया है । द्रव्यके उक्त लक्षणसे अन्वित होनेके कारण यह द्रव्यनिक्षेप है या निक्षेपजनकतावच्छेदकावच्छिन्न द्रव्य है ।
अनुपयुक्तः प्राभृतज्ञायी आत्मागमः कथं द्रव्यमिति नाशंकनीयं द्रव्यलक्षणान्वयात् । जीवादिप्राभृतज्ञस्यात्मनोनुपयुक्तस्योपयुक्तं तत्याभृतज्ञानाख्यमनागतपरिणामविशेष प्रति गृहीताभिमुख्यस्वभावत्वसिद्धेः।
शास्त्रोंको जाननेवाला किन्तु इस समय उनमें उपयोगरहित हो रहा आत्मा भला आगमद्रव्य कैसे होगा ? इस प्रकार यहां शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि इसमें द्रव्यनिक्षेपका लक्षण अन्वयरूपसे चला जाता है । जीव, ज्ञान, चारित्र, आदिके शास्त्रोंको जाननेवाले किन्तु उस समय उपयोग न लगाये हुए आत्माका आगमद्रव्यनिक्षेपसे व्यवहार होना उपयुक्त है । क्योंकि उस आत्माका भविष्यमें होनेवाले उन उन शास्त्रोंके ज्ञान नामक विशेषपरिणामोंके प्रति अभिमुखताको ग्रहण करनारूप स्वभाव सिद्ध होगया है । " द्रोष्यतीति द्रव्यम् ” यहां भविष्यकालके द्रवणकी अपेक्षासे द्रव्यशब्द बना है। भावार्थ-आत्माके अनेक गुणोंमें ज्ञान गुण प्रधान है । अतः उपयोगात्मक ज्ञान गुणका उपलक्षण कर उसकी भविष्य पर्यायोंसे आत्मद्रव्यकी परिणति होना द्रव्यनिक्षेप द्वारा कही जाती है।
नो आगमः पुनस्त्रेधा ज्ञशरीरादिभेदतः। त्रिकालगोचरं ज्ञातुः शरीरं तत्र च त्रिधा ॥ ६२ ॥