Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
२४७
- यहां बौद्ध शंकाकारकी पदवीपर आरूढ होकर अपने ऊपर आये हुए दोषोंका प्रतीकार करते हुये अपने मतका अवधारण करते हैं कि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जाने जा रहे विवक्षाके स्वरूपमें शब्द नहीं प्रवर्तता है । यों तो शब्द वस्तुस्पर्शी हो जावेगा, किन्तु कल्पना किये गये अन्यापोहमें उस शब्दकी प्रवृत्ति है, तिस कारण सभी शब्द अन्यापोहको करनेवाले हैं ऐसा हम बौद्धोंने कहा है, अतः हमारा कहना निष्फल बकवाद नहीं है। ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंजेंगे कि तब तो आपका कल्पना किया गया अन्यापोह विवक्षासे भिन्न स्वभाववाला होता हुआ अन्य घट, पट आदि दूसरे भावोंके समान वह वक्ताके स्वसंवेदन प्रत्यक्षका विषय न होगा । क्योंकि जो इच्छास्वरूप ज्ञान, सुख, आदि पदार्थ हैं उनका ही स्वसंवेदन होता है । इच्छासे सर्वथा भिन्न घट, व्यजन, आदि बहिरंग विषय तो स्वसंवेदन प्रत्यक्षके विषय नहीं हैं । यदि उस अन्यापोहको उस विवक्षाका स्वभाव मानोगे तो अन्यापोह स्वसंवेदन प्रत्यक्षका विषय सिद्ध हो जावेगा, तब तो इस कारण संवेदन किये गये विवक्षास्वरूप अन्यापोहमें शद्ब भला क्यों नहीं प्रवर्तेगा ? फिर अभी आपने निषेध कैसे कहा है।
ननु च वक्तुर्विवक्षायाः स्वसंविदितं रूपं स्वसंवेदमात्रोपादानं सकलप्रत्यये भावात् कल्पनाकारस्तु पूर्वशवासनोपादानस्तत्र वर्तमानः शरः कथं स्वसंवेद्ये रूपे वास्तवे प्रवर्तते नाम यतो वस्तुविषयः स्यादिति चेत्, नैवम् । स्वसंविदितरूपकल्पनाकारयोभिन्नोपादानत्वेन सन्तानभेदमसंगात् । तथा च सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमिति व्याहन्यते स्वसंवेदनाद्भिन्नस्य विकल्पस्य स्वसंविदितत्वविरोधात् रूपादिवत् ।। - फिर भी बौद्ध कहते हैं कि वक्ताकी विवक्षाका स्वसंवेदनसे जान लिया गया स्वरूप केवल इतना ही है कि वह शुद्ध संवेदनको उपादान कारण मानकर उत्पन्न हुआ है। शुद्ध ज्ञानको ही जान लेना स्वसंवेदन अंश है, जो कि सभी ज्ञानों में विद्यमान है, कहीं व्यभिचार नहीं है। किन्तु अन्य कल्पनाके आकाररूप विकल्प तो पहिली मिथ्या शद्बवासनाओंको उपादानकारण मानकर उत्पन्न हो गया है । जैसे कि पहिले घटज्ञानसे उत्तरकालमें पटज्ञान हुआ। यहां पहिला ज्ञान ही उत्तर ज्ञानका उपादान कारण है । घटपना और पटपना ये उपादान और उपादेयके अंश नहीं हैं, कल्पित हैं । अथवा जैसे रुपयासे रुपया बढता है। यहां रुपयोंके सन् सम्वत्, छाप, कढी हुई बेल आदि कारण नहीं हैं, वे तो रुपयोंमें कल्पना किये गये अंश है । अतः उन कल्पित आकारों में प्रवर्त रहा शब्द भला वास्तविक स्वसंवेद्यस्वरूपमें प्रवर्तनेवाला कैसे कहा जावेगा ? जिससे कि वस्तुभूत अर्थोको विषय करनेवाला हो जावे । आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये, क्योंक ऐसे तो यदि स्वसंविदित अंशका उपादान शुद्ध संवेदनको माना जावेगा और कल्पित आकारोंकी उपादान कारण पहिली शब्द वासनाओंको माना जावेगा तो इस प्रकार भिन्न भिन्न उपादान हो जानेसे विवक्षामें भिन्न भिन्न सन्तान होनेका प्रसंग होगा। अर्थात् एक ही विवक्षाका आधा अंश स्वसंविदित होगा और आधा- अंश संविदित नहीं होगा और तैसा होनेपर