Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
होगा । यदि धर्मकी ओरसे आई हुई उस उपकार शक्तिको भी उस धर्मसे या धर्मीकी ओरसे आई शक्तिको उस धर्मसे भिन्न मानोगे तो यहां भी सम्बन्ध व्यवस्थाके लिये उपकार्य उपकारकभाव मानना पडेगा, फिर भी उपकारककी ओरसे उपकृतमें उपकार पहुंचेगा, वह भी भिन्न पडा रहेगा । सय, विन्ध्य के समान सर्वथा भिन्नों में सम्बन्धके विना षष्ठी विभक्ति नहीं उतरती है । अतः पुनः उन भिन्नोंको जोडनेके लिये घटकावयवोंकी आकांक्षा बढती ही जावेगी । इस प्रकार भेद माननेपर दोनों पक्षोंमें अनवस्था दोष होगा । अभेद पक्षमें हम दोष दे ही चुके हैं । दूसरी बात यह है कि वस्तुभूत अर्थको जाननेवाले सभी ज्ञानोंका प्रतिभास स्पष्ट होता है । हम बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञानको ही वस्तुस्पर्शी मानते हैं, वह स्पष्टप्रतिभासी प्रत्यक्ष है । यदि शद्वजन्य ज्ञानका विषय प्रत्यक्षके समान वस्तुभूत माना जावेगा तो शाद्वज्ञानको स्पष्ट प्रतिभास करनेका प्रसंग हो जावेगा । अतः शब्दका विषय वह बहिर्भूत अर्थ नहीं है । यहांतक बौद्धोंने शद्वका वाच्यअर्थ बहिर्भूत घट, पट आदिको न मानकर शद्वके द्वारा विवक्षाका विधान करना माना है । इसपर आचार्य कहते हैं कि जैसे ही शद्वके द्वारा बहिर्भूत वाच्यअर्थको प्रकाश करनेमें आप उक्त दोष उठाते हैं तैसे ही शद्वके द्वारा वक्ता बोलनेकी इच्छाको कहने में भी वे ही दोष आते हैं, कोई अन्तर नहीं है । बौद्धोंने कहा था कि शद्वके उस वाच्यअर्थमें दूसरे प्रमाणोंकी प्रवृत्ति नहीं ही हो सकेगी सो यह स्वीकार करना उनको युक्त नहीं है। क्योंकि शद्वके द्वारा सामान्यरूपसे प्रतिपत्ति हो जानेपर भी वहां विशेष अर्थोके जाननेका आश्रय लेनेसे अन्य प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होनेपर ही उनके द्वारा विशेष, विशेषांशोंका निश्चय हो पाता है अथवा वक्ताकी इच्छामें या उसके विषय में अन्य प्रमाणोंकी प्रवृत्तिका नहीं होना ही बौद्धोंको नहीं स्वीकार करना चाहिये। क्योंकि सामान्यरूपसे शद्वके द्वारा इच्छा जान भी ली गयी तो भी विशेष अंशोंको जाननेके लिये अन्य प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होना घटित हो जाता है । तिस कारण बौद्धों मन्तव्यानुसार शद्वके द्वारा बहिर्भूत अर्थके समान वक्ताकी इच्छा में भी प्रवृत्ति होना असंभव है । फिर भी शद उस विवक्षाका ही विधान करता है और बहिर्भूत अर्थका विधान नहीं करता है, यह कहते जाना क्यों नहीं निष्फल चेष्टा करना माना जावे ? पहिले संपूर्ण raiको अन्यापोह करनेवालेपनकी प्रतिज्ञा हो जानेसे फिर उसके विपरीत विवक्षाका विधान करनेको कहना निष्फल बकवाद है । अन्योंकी व्यावृत्तिरूप अभावको करनेवाले शद भला विवक्षाके विधान करनेवाले कैसे हो सकते हैं ? विचारो तो सही । निषेध और विधान तो विरुद्ध हैं ।
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ननु च विवक्षायाः स्वरूपे संवेद्यमाने शद्बो न प्रवर्तत एव कल्पितेऽन्यापोहे तस्य प्रवृत्तेस्ततोऽन्यापोहकारी सर्वः शद्ध इति वचनान्न वान्ध्यविलसितमिति चेत्, स तर्हि कल्पितोऽन्यापोहः विवक्षातो भिन्नस्वभावो वक्तुः स्वसंबंद्यो न स्याद्भावान्तरवत् तस्य तत्स्वभावत्वे वा संवेद्यत्वसिद्धेः कथं न संवेद्यमाने तत्स्वरूपे शब्दः प्रवर्तते ।