Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
२५१
अन्यापोहे प्रतीते च कथमर्थे प्रवर्तनम् ।
शांत्सिध्येज्जनस्यास्य सर्वथातिप्रसंगतः ॥ ४५॥
एक बात यह भी है कि बौद्धोंके मतानुसार शब्दके द्वारा अन्यापोह प्रतीत कर लेनेपर इस व्यवहारी प्राणीकी शबसे अर्थमें प्रवृत्ति होना भला कैसे सिद्ध होगा? सभी प्रकारोंसे अतिप्रसंग दोष होगा । वक्ता और गूंगेमें कोई भेद न रह सकेगा । शिष्यको गुरु न पढा सकेगा । लेने देनेका व्यवहार नष्ट हो जावेगा । लिखापढीका व्यवहार टूट जावेगा। कुछ भी कहने पर अंटसंट समझने वाला पुरुष मिथ्याज्ञानी न कहा जाना चाहिये । ये सब अतिप्रसंग हो जायेंगे ।
न ह्यन्यत्र शदेन चोद्यतेऽन्यत्र तन्मूला प्रवृत्तियुक्ता गोदोहचोदने बलीवर्दवाहनादौ तत्प्रसंगात् ।
शब्दके द्वारा अन्य दूसरे ही पदार्थमें प्रेरणा करायी जावे और उस शब्दको मूल मानकर होने वाली प्रवृत्ति किसी अन्य तीसरे पदार्थमें हो जावे, यह तो कैसे भी युक्त नहीं है । अन्यथा गौको दोहो! ऐसी वक्ता प्रभु द्वारा प्रेरणा करने पर बैलके लादनेमें या घोडेके घुमाने, भोजन करने आदिमें भी श्रोताकी उस प्रवृत्तिके होनेका प्रसंग हो जावेगा । अर्थात् शद्बका वाच्य तो अन्यापोह . माना जावे और शबके द्वारा प्रवृत्ति बहिरंग अर्थमें हो जावे यह सर्वथा झूठ है । यहां तो वही किंवदन्ती प्रसिद्ध होती है कि " कहे खेतकी सुने खलियानकी " प्रष्टाम्रः कोविदारं ब्रूते अर्थात् आमका प्रश्न और अमरूदका उत्तर ।
एकत्वारोपमात्रेण यदि दृश्यविकल्पयोः । प्रवृत्तिः कस्यचिद्दश्ये विकल्प्येप्यस्त्वभेदतः ॥ ४६ ॥ नैकत्वाध्यवसायोपि दृश्यं स्पृशति जातुचित् । विकल्पस्यान्यथा सिद्धयेद् दृश्यस्पर्शित्वमंजसा ॥४७॥ विकल्प्यदृश्यसामान्यैकत्वेनाध्यवसीयते। यदि दृश्यविशेषे स्यात् कथं वृत्तिस्तदार्थनाम् ॥ ४८॥ तस्य चेद् दृश्यसामान्यैकत्वारोपात्क वर्तनम् ।
सौगतस्य भवेदर्थेनवस्थाप्यनुषंगतः ॥ ४९ ॥
यदि बौद्ध लोग निर्विकल्पक प्रत्यक्षके विषय वस्तुभूत दृश्यमें और मिथ्याज्ञानस्वरूप सबिकल्पकके विषय विकल्प्यमें एकपनेका आरोप करनेसे किसी भी पुरुषकी स्वलक्षणरूप दृश्यमें प्रवृत्ति