Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
२४१
__कथं चायमाकृतीनां गोत्वादीनां परस्परं विशिष्टतामपरविशेषण विरहेऽपि स्वयमुपयन गवादिव्यक्तीनां विशेषणवशादेव तामुपगच्छेत् तथा दृष्टत्वादिति चेत् न, तत्रैव विवादात् । तदविवादे वा व्यक्त्याकृत्यात्मकस्य वस्तुनः पदार्थत्वसिद्धिस्तथा दर्शनस्य सर्वत्र भावात् ।
और नैयायिकसे हमको यह कहना है कि यह नैयायिक गोत्व, अश्वत्व, आदि आकृतियोंकी परस्परमें हुयी विशेषता ( वैलक्षण्य ) को अन्य विशेषोंके न होनेपर भी स्वयं अपने आप होती हुयी स्वीकार करता हुआ भला गो, अश्व, आदि व्यक्तियोंकी उस विशिष्टताको विशेषणोंके अधीन ही स्वतः क्यों न मान लेवे । अर्थात् आकृतियोंकी विशेषताको विना विशेष धर्मके जैसे तुम स्वीकार कर लेते हो तैसे ही गौ, अश्व आदि व्यक्तियोंकी उस विशेषताको सींग, सास्ना, ककुद् एक खुर वालापन, पूरीपूंछपर लम्बे बाल, आदि स्वात्मभूत विशेषोंसे ही स्वयं होती हुयी क्यों नहीं मान लेते हो । इसपर यदि तुम यह कहो कि गोत्व आदि आकृतियोंकी विशेषता तो अपने आप होती हुयी तिस प्रकार देखी गयी है, अतः हम मान लेते हैं। किन्तु व्यक्तियोंकी विशेषता तो केवल विशेषणोसे होती हुयी नहीं देखी जाती है, अतः नहीं मानते हैं। आचार्य समझाते हैं कि यह तो नहीं कहो, क्योंकि वहां ही तो विवाद है कि व्यक्तियोंकी विशेषता विशेषणोंसे ही क्यों न हो जावे ! किन्तु आप उस प्रश्नका वही उत्तर दे देते हैं। हम पूछते हैं कि ईश्वर सृष्टिको क्यों बनाता है ? इसका उत्तर मिलता है कि जिस कारणसे कि ईश्वर सृष्टिको बनाता है । अथवा यदि स्वभाव और वस्तुस्थितिके अनुसार विशेषपनेकी व्यवस्थाको मानते हुए उसमें विवाद न करोगे तब तो व्यक्ति और आकृतिस्वरूप वस्तुको पदका वाच्य अर्थपना सिद्ध हो जाता है, क्योंकि तिसी प्रकार देखना सभी . स्थलोंपर विद्यमान हैं। किसी भी शद्बको सुनकर संकेतग्राही श्रोताको व्यक्ति और आकृतिरूप वस्तुका ज्ञान हो जाता है । जहां व्यक्ति है वहां आकृति अवश्य है और जहां आकृति है वहां व्यक्ति भी अवश्य है दोनों ही वस्तुके तदात्मक अंश हैं । अतः नैयायिकोंके एकान्तका निरास कर सामान्यविशेषात्मक वस्तुको शद्बका वाच्य अर्थपना सिद्ध हुआ।
योऽपि मन्यतेऽन्यापोहमात्रं शवस्यार्थ इति तस्यापि
जो भी बौद्ध यह मानता है कि शद्बका वाच्य अर्थ केवल अन्यापोह ही है । वस्तुभूत भाव पदार्थ तो शब्दसे नहीं कहा जाता है। देवदत्त पण्डित है इसका अभिप्राय यही है कि वह अपण्डित यानी मूर्ख नहीं है, कोई धनवान् है इस शब्दका भी यही तात्पर्य है कि वह निर्धन नहीं है। संसारके दुःखाभावोंमें जैसे सुखशद्वका प्रयोग गौणरूपसे हो जाता है, वस्तुतः वहां सुखका अर्थ दुःखका अभाव तथा तीव्र दुःखोंके प्रहारका अभाव है, अधिक बोझसे लदे हुए पुरुषका बोझ उतार देनेपर सुखी हो जानेका अर्थ दुःखाभाव है.। तैसे ही गो शब्दका अर्थ गौसे भिन्न सजातीय और विजातीय व्यक्तियोंसे अपोह यानी अभाव करना है। अश्व शब्द्वका अर्थ घोडोंसे मिन होरही व्यत्तियोंकी व्यावृत्ति करना है, इस प्रकार जो बौद्ध मानता है। उसके यहां भी
31