Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
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विशेषणोंसे उन संस्थानोंके विशेषका निर्णय कर लिया जावेगा, ऐसा कहने पर तो पुनः हम पूछेगे कि संस्थानोंकी विशेषताको निर्णय करानेवाले उन विशेषणोंकी भी विशेषताका कैसे निश्चय किया जावे ? यहां भी उन विशेषणोंमें रहने वाले दूसरे विशेषणोंसे विशेषताका ज्ञान मानोगे, तब तो उन तीसरे विशेषणोंके लिये भी अन्य विशेषणोंकी आंकाक्षा बढती जावेगी, इस ढंगसे अनवस्था दोष होगा । अतः विशेषसंस्थानोंका निर्णय नहीं हुआ । भला ऐसी दशामें उन विशेष संस्थानोंसे प्रगट हुयी विशेष आकृतियोंका कैसे निश्चय होगा ? यानी आकृतियोंका निश्चय नहीं हो सकेगा।
यदि पुनराकृतिविशेषनिश्चयादेतदभिव्यञ्जकसंस्थानविशेषनिश्चयः स्यादिति मतं तदा परस्पराश्रयणं । संस्थानविशेषस्य निश्चये सत्याकृतिविशेषस्य निश्चयस्तनिश्चये सति संस्थानविशेषनिश्चय इति । स्वत एवाकृतिविशेषस्य निश्चयाददोष इति चेत् न, संस्थानविशेषनिश्चयस्यापि स्वतः एवानुषंगात् ।
यदि फिर आकृतिवादी आप यों कहें कि व्यंग्य आकृति विशेषोंके निश्चय हो जानेसे उनको प्रगट करनेवाले विशेषसंस्थानोंका निश्चय हो जावेगा । सो आपका ऐसा मत होनेपर तो अन्योन्याश्रय दोष है । सुनिये ! संस्थान विशेषोंका निर्णय हो जानेपर तो विशेष आकृतिओंका निश्चय होवे तथा उन विशेष आकृतियोंका निश्चय हो चुकनेपर विशेषसंस्थानोंका निश्चय होवे । इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोषवाले दोनों हेतुओं ( ज्ञापक या कारक ) मेंसे एककी भी सिद्धि नहीं होने पाती है। यदि आप यों कहें कि आकृतियोंकी विशेषताका निर्णय तो स्वयं अपने आपसे ही हो जाता है। अतः अतिप्रसंग, अनवस्था, अन्योन्याश्रय ये कोई दोष नहीं आते हैं, यह तो नहीं कहना चाहिये। क्योंकि यों तो विशेषसंस्थानोंके निश्चयका भी अपने आप ही हो जानेका प्रसंग होगा। भावार्थसंस्थानोंकी विशेषताका निर्णय आकृतिके विशेषोंसे माना जावे और आकृतियोंकी . विशेषता स्वतः जान ली जावे, इसकी अपेक्षा पहिली कोटिमें ही संस्थानोंकी विशेषताओंका ही क्यों न स्वतः निर्णय होना मान लिया जावे । परम्परा करनेका परिश्रम क्यों किया जाता है ?
प्रत्ययविशेषादाकृतिविशेषः संस्थानविशेषश्च निश्चीयत इति चेत्, कुतः प्रत्ययविशेषसिद्धिः ? न तावत्स्वसंवेदनतः सिद्धान्तविरोधात् । प्रत्ययान्तराच्चेदनवस्था। विषयविशेष निर्णयादिति चेत्, परस्पराश्रयणं, विषयविशेषस्य सिद्धौ प्रत्ययविशेषस्य सिद्धिः तत्सिद्धौ च तत्सिद्धिरिति ।
यदि आप यों कहें कि निर्णय आत्मक ज्ञानोंकी विशेषताओंसे आकृतियोंकी विशेषता जान ली जावेगी और उन ज्ञानोंसे ही आकृतियोंके व्यञ्जक हो रहे संस्थानोंकी विशेषताका भी निर्णय कर लिया जावेगा, ऐसा माननेपर सर्व व्यवस्था ठीक बन जाती है। अनवस्था आदि दोषोंका प्रसंग भी टल जाता है । आपके इस प्रकार कहनेपर तो हम पुनः प्रश्न करेंगे कि उन ज्ञानोंमें