Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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• तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
रहे हैं । सींगको देखकर गाय या. महिषका ज्ञान हो जाता है, जलमेंसे निकली हुयी सूंडको देखकर हाथीका ज्ञान हो जाता है । यही शृंगग्राहिका न्याय होना चाहिये। शेषं बुधा विमर्षयन्तु ।
तदप्यसंगतं जातिप्रतीतेत्तिसम्भवे । शब्देनाजन्यमानायाः शब्दवृत्तिविरोधतः ॥ २९ ॥ पारम्पर्येण चेच्छब्दात्सा वृत्तिः करणान्न किम् । ततो न शब्दतो वृत्तिरेषां स्याज्जातिवादिवत् ॥ ३० ॥
आचार्य बोलते हैं कि इनका वह कहना भी असंगत है। क्योंकि शद्बके द्वारा नहीं उत्पन्न हुयी जातिप्रतीतिसे जातिमान् पदार्थमें प्रवृत्ति होना मानेगे तो शबसे वह प्रवृत्ति हुयी, यह न कह . सकोगे । जातिसे उत्पन्न हुयी प्रवृत्तिको शबसे उत्पन्न हुयी कहना विरुद्ध है । यदि वह प्रवृत्ति परम्परासे शद्बके द्वारा उत्पन्न हुयी ही कही जावे तब तो परम्परासे श्रोत्र इन्द्रियसे ही वह प्रवृत्ति होना क्यों न मान लिया जावे ? कर्ण इन्द्रियसे शद्बका ज्ञान और शद्बसे जाति और जातिसे जातिमान् व्यक्ति स्वरूप पदार्थमें अर्थक्रियार्थी पुरुषकी प्रवृत्ति हो जावेगी। बीचमें दो परम्परा देनेसे तीन परम्परा देना कहीं अच्छा है । पितामह ( बाबा ) की अपेक्षा सन्तानको प्रपितामह ( पडबाबा ) की कहना लोकमें प्रशंसनीय माना जाता है । तिस कारण केवल जातिको शब्द्वका अर्थ कहने वालोंके समान इन व्यक्तिवादियोंकी भी शबके द्वारा शाद्वबोधप्रक्रियासे पदार्थोंमें प्रवृत्ति होना नहीं घटित होता है। इन दो वार्तिकोंका विद्यानन्द आचार्य भाष्य करते हैं कि
प्रतीतायामपि शद्धायक्तावेकत्र यावत् स्वतस्तज्जातिर्न प्रतीता न तावत्तद्विशिष्टां व्यक्तिं प्रतीत्य कश्चित् प्रवर्तत इति जातिप्रत्ययादेव प्रवृत्तिसम्भवे शद्धात् सा प्रवृत्तिरिति विरुद्धं, मातिप्रत्ययस्य शद्धेनाजन्यमानत्वात् ।
____ शबके द्वारा एक व्यक्तिके प्रतीत हो जाने पर भी जबतक उसमें रहने वाली जातिकी अपने आपसे प्रतीति न की जावेगी, तबतक उस जातिसे सहित उस व्यक्तिका निर्णय करके कोई भी मनुष्य नहीं प्रवृत्ति करता है । इस कारण यदि शबसे व्यक्ति और व्यक्तिसे जाति तथा जातिज्ञानसे जातिविशिष्ट व्यक्तिका निर्णय कर जातिज्ञानसे ही प्रवृत्ति होना माना जावेगा, तब तो हम जैन आपादन कर देंगे कि वह प्रवृत्ति शबसे हुई है, यह कहना विरुद्ध पडेगा । क्योंकि व्यक्तिवादीके मतानुसार जातिका ज्ञानशद्वसे उत्पन्न नहीं हुआ है।
शद्वाद्यक्तिप्रतीतिभावे तद्विशेषणभूताया जातेः संप्रत्ययात्तत एव जातिर्गम्यत एवेति चेत्, कथमेवं व्यक्तिवज्जाविरपि शद्धार्थो न स्यात् ? तस्याः शद्वतोऽश्रूयमाणत्वा