Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
२२.७
नेपर गुडकी मधुरताका निर्णय होना अपने आप प्रतीत कर लिया जाता है। तथा निम्बका ज्ञान हो जानेपर उसके तिक्त रसका ज्ञान हो जाता है । इन बातोंको लोकमें जनसमुदाय अच्छे प्रकार कह देता है । व्यक्ति द्वारा निर्णीत हुयी जातिसे विशिष्ट हो रहे फिर अभीष्ट विशेष जिस जिस व्यक्तिको लोक देखता है उन उन व्यक्तियोंमें प्रयोजनकी सिद्धिके लिये यह जीव प्रवृत्ति कर लेता है और तिसी प्रकार शद्बजन्य संपूर्ण लोक व्यवहार प्रसिद्ध हो जाते हैं, इस समीचीन प्रतीति का कोई बाधक नहीं है । इस प्रकार कोई एक वैशेषिकोंके एक देशीय अपने मन्तव्यको बहुत अच्छा समझते हुये साटोप कह रहे हैं ।
न प्रधानं शुद्धद्रव्यं शद्वतत्त्वमात्मतत्त्वं वाद्वयं पदार्थः प्रतीतिबाधितत्वात् । नापि भेदवादिनां नानाव्यक्तिषु नित्यासु वा शद्वस्य प्रवृत्तिः तत्र संकेतकरणासम्भवादिदोषावतारात्, किं तर्हि ? व्यक्तावेकस्यां शुद्धः प्रवर्तते श्रृंगग्राहिकया परोपदेशाल्लिंग दर्शनाद्वा तस्यां ततो निर्णीतायां तद्विशेषणभूतायां जातौ स्वत एव निश्यो यथा गुडादिशद्वागुडादेर्निणये तद्विशेषणे माधुर्यादौ तथाभ्यासादिवशाल्लोके संप्रत्ययात् । ततः स्वनिश्चितया जात्या विशिष्टामभिप्रेतां यां व्यक्तिं पश्यति तत्र तत्रैष्टसिद्धये प्रवर्तते । तावता च सकलशाद्धव्यवहारः सिध्यति बाधकाभावादिति व्यक्तिपदार्थवादिनः प्राहुः ।
उक्त कारिकाओं का विवरण करते हैं कि अकेला प्रधान ( प्रकृति ) या शुद्धद्रव्य तथा शद्वतत्त्व एवं अद्वैत आत्मतत्त्व ये पदके वाच्यअर्थ नहीं हैं, क्योंकि ऐसा माननेमें प्रमाणं प्रसिद्ध प्रतीतियोंसे बाधा आती है । और भेदको कहनेवाले दूसरे द्वैतवादियोंके यहां मानी गयी नित्य अनेक व्यक्तियोंमें शद्वोंकी प्रवृत्ति होना भी ठीक नहीं बनता है, क्योंकि उन नित्य व्यक्तियोंमें संकेत करनेका असम्भव, अनन्वय, प्रवृत्त्यभाव आदि दोषोंका अवतार होता है । तब तो पदका वाच्यअर्थ क्या है ? इसका उत्तर हम यह देते हैं कि श्रृंगग्राहिका न्याय यानी अङ्गुली निर्देशसे एक व्यक्ति में पहिले शद्व प्रवर्तता है, दूसरोंके उपदेश अथवा ज्ञापक हेतुओंके देखनेसे संकेतग्रहण करके उस शब्द से उस व्यक्तिका निर्णय हो चुकनेपर व्यक्तिकी विशेषणरूप हो रही जातिमें अपने आप हीसे निश्चय हो जाता है, जैसे कि गुड, निम्ब, निम्बू आदि शब्दोंसे गुड आदि व्यक्तियोंका निर्णय हो जानेपर उनके विशेषण हो रहे मीठापन, कडुआ, ( चिर्परा ) खट्टा, आदि में तैसे तैसे अभ्यास, प्रकरण, आदिके अधीन ज्ञान हो जाता है, यह लोक में अच्छे प्रकार देखा गया है । तिस कारण स्वयं व्यक्तियोंमें निश्चित की गयी जातिसे सहित जिस अभीष्ट व्यक्तिको मनुष्य देखता है । उस उसमें अपनी इष्ट सिद्धिके लिये प्रवृत्ति कर देता है । केवल उतनेसे ही सम्पूर्ण शब्दजन्य व्यवहारोंकी सिद्धि हो जाती है, इसमें बाधक नहीं है। गौओंका समुदाय, या गौ को देता है, लेता है, गौ दुर्बल है, इत्यादि व्यवहार व्यक्तिमें ही सम्भव रहे हैं । इस प्रकार व्यक्तिको पदका वाच्य अर्थ कहनेवाले स्पष्टरूपसे कह
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