Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
" जीवाजीव बन्धमोक्षौ तद्धेतू च तत्त्वमिति सूत्रं वक्तव्यं सकलप्रयोजनार्थसंग्रहात्, बन्धस्य हि हेतुरास्रवो मोक्षस्य हेतुर्द्विविकल्पः संवरनिर्जराभेदादिति न कस्यचिदसंग्रहस्त वस्य मोक्षहेतुविकल्पयोः पृथगभिधाने बन्धास्रवविकल्पयोरपि पुण्यपापयोः पृथगभिधानप्रसंगादिति चेत् ।
1
शंकाकारके अभिमतको कहनेवाली वार्तिकका भाष्य करते हैं कि जीव और अजीव तथा बन्ध और मोक्ष एवं उन बन्ध और मोक्ष दो तत्त्वोंके दो कारणरूपी तत्त्व इस प्रकार छह तत्त्वों को निरूपण करनेवाला सूत्र कहना चाहिए । क्यों कि ऐसा कहनेसे सम्पूर्ण प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाले अर्थोक संग्रह हो जाता है। कोई भी मोक्षोपयोगी तत्त्व शेष नहीं रह जाता है । कारण कि बन्धका हेतु छह पदार्थोंमें एक स्वतंत्र तत्व हमने कहा है । ऐसा कहने से आस्रव तत्त्वका संग्रह हो जाता है तथा मोक्षका हेतु भी एक स्वतंत्र तत्त्व है । वह संवर और निर्जराके भेदसे दो प्रकारका है । अतः मोक्ष हेतु तत्त्वमें संवर और निर्जराका संग्रह हो जाता है । इस प्रकार आपके माने हुए सात तत्त्वों का इन छह तत्त्वोंमें संग्रह हो जाता है किसी भी तत्त्वका असंग्रह नहीं । यानी कोई शेष नहीं बचता है । सात तत्त्वोंसे एक संख्या घटाकर छह तत्त्वोंके माननेमें उपस्थितिसे किया गया लाघवगुण है अन्य भी बचे हुये कतिपय तत्त्वोंका संग्रह होजाता है । और मोक्षकी प्रक्रिया सुलभतासे जानी जाती है। अतः अर्थसे किया गया लाघव गुण है । तथा अठारह स्वरवाले सूत्रसे " जीवाजीवौ बन्धमोक्षौ तद्धेत् च तत्त्वम् इस चौदह स्वरवाले सूत्रके बनानेमें परिमाणसे किया गया लाघव गुण है । एवं लम्बा समास न होनेके कारण यह सूत्र सुलभतासे शाद्वबोध करा देता है। अतः गुणसे किया गया लाघव भी है । व्याकरण शास्त्र और न्यायशास्त्र जाननेवालोंको इन गुणोंका उल्लंघन नहीं करना चाहिये । मोक्षके कारण मानेगये संवर और निर्जरा विकल्पों ( प्रकारों ) को यदि आप जैन पृथक्रूपसे कथन करेंगे तो बन्ध और आस्रवके विकल्परूप होरहे पुण्य, पाप तत्त्वोंका भी स्वतन्त्र रूप से तत्त्वोंमें पृथक् कथन करनेका प्रसंग होगा । न्याय्य विषयको कहने में लांच नहीं खाना चाहिये । यदि शंकाकार इस प्रकार कहेंगे ? तो हम जैन बोलते हैं कि
1
""
सत्यं किंत्वास्रवस्यैव बन्धहेतुत्वसंविदे ।
मिथ्यादृगादिभेदस्य वचो युक्तं परिस्फुटम् ॥ १० ॥
१०७
शंकाकारका कहना कुछ देरके लिये ठीक है जबतक कि हम उत्तर नहीं देते हैं । किन्तु उत्तर देनेपर तो जीर्ण वस्त्र के समान खण्डित हो जायेगा । बन्धका हेतु आस्रव ही है, इस बातको समझाने के लिये मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये हैं भेद जिसके ऐसे आसवका अधिक स्पष्टरूपसे तत्त्वोंमें स्वतन्त्र तत्त्वपने करके कथन करना युक्त ही है । अर्थात् यदि बन्धहेतु नामका ही तत्त्व माना जावेगा तो बन्धका हेतु आस्रव ही है, यह निर्णय नहीं हो सकता है । देखो,