Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्याचन्तामणिः
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. प्रतिपादक वक्ताके वचनोंके समान उसका हाथ हिलाना, मस्तक डुलाना, चेष्टा करना आदि क्रियाओंसे युक्त होरहा शरीर अथवा पत्र, पट्टी, पत्थर, तांबा, ताडपत्रपर लिखे हुए अकार आदि अक्षर लिपि तथा संकेतित अव्यक्त गिट, गिरगिट्ट आदि शद, या कमल आदिका इंगित करना, ये सम्पूर्ण पदार्थ भी अजीवात्मक हैं, जो कि दूसरे ज्ञाताओंको प्रतिपत्ति होनेके साधन हैं। क्योंकि दूसरोंके द्वारा अव्यवहित रूपसे साक्षात् शीघ्र जान लिये जाते हैं, इस बातको हम कह चुके हैं। यहां यह कहना है कि प्रतिपादकके वचन, शरीर आदिकोंको अजीव तत्त्वपना केवल परसंवेद्यत्व हेतुसे ही सिद्ध नहीं है। किन्तु दूसरा हेतु भी अजीवपनेको सिद्ध करनेके लिये विद्यमान है तो वह कौनसा हेतु है ? सो सुनो । बहिरंग इन्द्रियोंसे जो ग्रहण करने योग्य हैं वे भी अजीवात्मक हैं । जैसे रूप, रस, पुद्गल, घट आदि । यदि वचन, शरीर आदिकोंको जीवस्वरूप मान लिया जावेगा तो बहिरंग इन्द्रियोंसे ग्राह्यपना नहीं बन सकेगा। इस प्रकार हमने पहिले अट्ठाईसवीं कारिकामें बहुत अच्छा कहा था कि दूसरोंके लिये जीवतत्त्वको सिद्ध करना अजीव तत्त्वको माने विना नहीं बन सकता है । इस कारण यहांतक अजीव तत्त्वके अस्तित्वकी सिद्धि कर दी गयी है । इस ढंगसे जीवके एकान्तका खण्डन कर अब अजीवके एकान्तका निरास करते हैं ।
योपि ब्रूते पृथिव्यादिरजीवोध्यक्षनिश्चितः ।
तत्त्वार्थ इति तस्यापि प्रायशो दत्तमुत्तरम् ॥ ४३॥ . जो भी चार्वाक स्पष्टरूपसे यह कहता है कि जीव तत्त्व कोई नहीं है । पृथिवी, जल, तेज, वायु ये चार अजीवतत्त्वं ही प्रत्यक्ष प्रमाणसे निश्चित किये गये तत्त्वरूप अर्थ हैं । इस प्रकार कहनेवाले उस चार्वाकको भी प्रायः करके हम पहिले प्रकरणोंमें उत्तर दे चुके हैं। सूत्रके अवतार प्रकरणमें चार्वाकके प्रति भिन्नतत्त्वपनसे जीवतत्त्वकी सिद्धि करादी गयी है। ___ अस्ति जीवः स्वार्थामीवसाधनान्यथानुपपत्तेः पृथिव्यादिरजीव एव तत्त्वार्थ इति न स्वयं साधनमन्तरेण निश्चेतुमर्हति कस्यचिदसाधनस्य निश्चयायोगात् । सत्त्वात्तथा निश्चय इति चेत् न, तस्याचेतनत्वात् चेतनत्वे तत्त्वान्तरत्वसिद्धेस्तस्यैव जीवत्वोपपत्तेः।
अनुमानसे जीव तत्त्वको सिद्ध करते हैं कि जीवतत्त्व (पक्ष ) है ( साध्य )। अपने लिये अजीवका साधन करना जीव तत्त्वको माने विना अन्य प्रकारसे नहीं बनता है ( हेतु )। पृथ्वी आदिक चार ही अजीव तत्त्वपनेसे निर्णीत अर्थ हैं, इस अपने सिद्धान्तको चार्वाक अपने लिये तो साधनके बिना निश्चय करनेके लिये समर्थ ( योग्य ) नहीं है । अथवा पृथ्वी आदि अजीव द्रव्य अपनी सिद्धि स्वयं करलें, यह अयोग्य है, किसी भी वस्तुका साधन रहित होकर निश्चय नहीं होता है । भावार्थ-आत्मतत्त्वके होने पर ही चार्वाकका अजीवको साधन करना बन सकता है । चक्षुरादि इन्द्रियोंसे अजीव तत्त्वको जाननेवाला आत्मा है । यदि सत्त्व हेतुसे पृथिवी आदिक अर्जीवोंको