Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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करता है ? इसका उत्तर आपको कहना चाहिये । यदि आप यों कहेंगे कि उस नित्यहेतुमें तिस प्रकारका एक स्वभाव है । अथवा वचनसे नहीं कही जाय ऐसी विशेष सामर्थ्य है,जिससे कि वह नित्य कारण विचारा परिमित व्यक्तियोंमें ही विशेष रचनाको बनाता है । ऊंट, भैंसा आदिमें नहीं। ऐसा कहनेपर तब तो. यही आया कि उस वचनके विषयपनसे अतिक्रान्त हो रहे उस स्वभाव करके अथवा शक्ति करके वचनके मार्गमें उतारी हुयी वस्तुको कारण मानकर वचनव्यवहार सम्बन्धी लोकयात्रा प्रवर्त रही है । इसी बातको भर्तृहरीने भी बहुत अच्छे ढंगसे कहा था कि जिस कारण सब हेतुओंके अन्तमें जाकर पदार्थका नहीं कहने योग्य स्वभाव अथवा विशेष सामर्थ्य ही हेतुपनेसे व्यवस्थित होता है । तिस कारण निर्विकल्पक स्वभावोंसे लौकिक व्यवहार नहीं चल सकता है, अर्थात् वस्तु निर्विकल्पक है । फिर भी लोकयात्राके अनुरोधसे वस्तुके कतिपय अंश शब्दके द्वारा वाच्य माने गये हैं । अथवा यह उपहास वचन है अवक्तव्य पदार्थोसे लोक व्यवहार नहीं प्रवृत्त हो सकता है। तिस कारण सिद्ध होता है कि वचनके गोचर वस्तुको कारण मानकर उत्पन्न हुए लोक व्यवहारके अनुकूल चलनेवाले पुरुषों करके सदृश परिणाम स्वरूप जाति शद्वोंके द्वारा कही गयी ही जाती है यह स्पष्ट रूपसे मान लेना चाहिये । भावार्थ-गौ, अश्व आदि जातिके प्रतिपादक शद्बोंसे सदृश परिणामरूप जाति कही जाती है।
तत्साध्यस्य कार्यस्य तदधिकरणेन साधयितुमशक्तेः । पुरुषे दण्टीतिप्रत्ययवद्दण्डसम्बन्धेन साध्यस्य तदधिकरणेन पुरुषमात्रेण वा साधयितुमशक्यत्वात् । दण्डोपादित्सया दण्डीतिप्रत्ययः साध्यते इति चायुक्तं, ततो दण्डोपादित्सावानिति प्रत्ययस्य प्रसूतेः अन्यथास्यापीच्छाकारणैः संस्तवोपकारगुणदर्शनादिभिः साध्यत्वप्रसंगात् ।। ... उस जातिसे. साधने योग्य कार्यका उसके अधिकरण हो रही विशेष व्यक्ति करके साधन नहीं हो सकता है । जैसे दण्डयुक्त पुरुषमें दण्डवाला ऐसा ज्ञान होना दण्डका कार्य है, दण्डके सम्बन्ध करके बनाये गये कार्यकी उस दण्डके आधारभूत केवल पुरुष करके साधन करनेके लिए अशक्यता है । यदि यों कहें कि यह दण्डवाला ऐसा ज्ञान तो दण्डके ग्रहण करनेकी इच्छासे भी साधा जा सकता है । फिर आप उसको केवल दण्डके सम्बन्धसे ही साध्य होना कैसे कहते हैं ? आचार्य समझाते हैं कि किसीका इस प्रकार कहना तो युक्तियोंसे रहित है । क्योंकि उस दण्डके ग्रहण करनेकी इच्छासे दण्डके ग्रहणकी इच्छावाला है, इस प्रकारके ज्ञानकी उत्पत्ति होती है। " दण्डवान् है " इस आंकारवाला. ज्ञान नहीं उत्पन्न हो पाता है, अन्यथा यानी ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार मानोगे तो “ दण्ड ग्रहणकी इच्छावाला है " इस ज्ञानको भी इच्छाके कारण माने गये स्तुति करना, उपकार दिखलाना, गुण दर्शन कराना, निर्दोषता, आदि करके साध्यपनेका प्रसंग हो जावेगा। भावार्थ--किसी किसी ज्ञानमें इच्छा निमित्त कारण है, किन्तु नियत नहीं। ज्ञानका अवलम्ब कारण विषय ही माना है । यदि दण्डज्ञानमें दण्डकी इच्छाको कारण कह दोगे तो