Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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परम्परया शद्धस्य प्रतिपत्त्युपायत्वे रूपादीनां सुप्रतिपत्त्युपायतास्तु । न हि धूमादिरूपादीनां विज्ञानात् पावकादिप्रतिपत्तिर्जनस्याप्रसिद्धाः । शद्धः साक्षात्प्रतिपत्त्युपायस्तस्य प्रतिभासादभिन्नत्वादिति चेत्, तत एव रूपादयः साक्षात्स्वप्रतिपत्तिहेतवः सन्तु ।
यदि शदवादी यों कहें कि पदार्थोंकी प्रमिति का साक्षात् ( अव्यवहित ) उपाय तो शद्वज्ञान है, किन्तु शद्वज्ञान शद्वसे उत्पन्न होता है । अतः परम्परासे प्रमितिका उपाय शब्द हो जाता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि ऐसा मानोगे तो रूप आदिकोंको भी परम्परासे अपनी प्रतिपत्तिका उपायपना उपस्थित रहो । धूम आदि व्यक्तियोंके रूप, स्पर्श आदि परिणमनोंके ज्ञानसे वह्नि आदि की मनुष्यों को समीचीन ज्ञप्ति होना अप्रसिद्ध नहीं है । अर्थात् धूमके रूपको देखकर परम्परा से वह्निका ज्ञान हो जाता है । वह्निज्ञानका साक्षात् कारण धूमज्ञान है । और परम्परासे रूप, रस आदिसे युक्त हो रहा धूम कारण है । यदि यहां तुम यह कहो कि शव तो अव्यवहितरूपसे अन्य पदार्थों की प्रतिपत्तिका उपाय है, क्योंकि वह शद्वतत्त्व तो ज्ञानप्रकाशसे अभिन्न पदार्थ है । ऐस कहने पर तो हम जैन भी आपादन कर देवेंगे कि तिस ही कारण यानी प्रतिभाससे अभिन्न होनेके कारण रूप, रस आदिक गुण भी अव्यवहित रूपसे अपनी प्रतिपत्तिके कारण हो जाओ ! भावार्थ- -शद्व तत्त्वको दूसरे पदार्थोंका ज्ञापक माना जावे इसकी अपेक्षा रूप आदिकोंको केवल स्वका ही ज्ञापक माना जावे तो अद्वैत की सिद्धिमें आपको अच्छी सहायता मिल सकती है ।
एवं च यथा श्रोत्रप्रतिभासादभिन्नः शद्धस्तत्समानाधिकरणतया संवेदनाच्छ्रोत्रप्रतिभासश्च परब्रह्म तत्त्वविकल्पाच्छब्दात् सोपि च ब्रह्मतत्त्वात्संवेदनमात्रलक्षणादव्यभिचारिस्वरूपादिति । ततः परमब्रह्मसिद्धिः । तथा रूपादयः स्वप्रतिभासादभिन्नाः, सोपि प्रतिभासमात्रविकल्पाल्लिंगात्, सोपि च परमात्मनः स्वसंवेदनमात्रलक्षणादिति न शद्बाद्रूपादीनां कञ्चन विशेषमुत्पश्यामः । सर्वथा तमपश्यन्तश्च शद्ध एव स्वरूपप्रकाशनो न तु रूपादयः, स एव परमब्रह्मणोधिगमोपायस्तत्स्वभावो वा न पुनस्त इति कथं प्रतिपद्येमहि ।
और इस प्रकार जैसे शद्बाद्वैतवादियों के यहां श्रोत्रजन्य श्रावणप्रत्यक्षसे शब्द अभिन्न है, क्योंकि उस प्रतिभासके समानाधिकरण करके शद्बका संवेदन हो रहा है । 66 शङ्खः प्रतिभासते " यहां शद्वका प्रतिभासन क्रियाके साथ समानाधिकरण है । अर्थात् प्रतिभास क्रिया शद्वमें रहती है, अतः श्रोत्रप्रतिभास और शब्द एक ही तत्त्व है और श्रोत्र प्रतिभास परब्रह्मरूप है, प्रतिभास, चित्, सत्, परब्रह्म इनमें कोई अन्तर नहीं है । वह परब्रह्म तो निर्विकल्पक शद्वसे अभिन्न है अथवा परब्रह्मतत्त्वका विकल्प ( विवर्त ) स्वरूप शद्वसे वह श्रोत्र प्रतिभास अभिन्न है और वह शब्द भी केवलसंवेदन स्वरूप तथा व्यभिचाररहितपने स्वभावको धारण करनेवाले ब्रह्मतत्त्वसे अभिन्न है । तिस कारण इस ढंगसे अद्वैतवादी जैसे शद्वको परब्रह्मस्वरूप सिद्ध कर देते हैं, तैसे रूप, रस, आदिक तत्त्व भी अपने अपने प्रतिभाससे अभिन्न हैं । " खवं प्रतिभासते, रसश्चकास्ति ” ऐसी प्रतीति हो रही है।