Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्य लोकवार्तिके
यहां शदवादी पुनरपि वपक्षका अवधारण करते हैं कि रूप आदिक गुण तो शद्बतत्त्वसे भिन्न नहीं हैं । क्योंकि वे रूप आदिक तो उस शब्दब्रह्मकी पर्याय हैं, तिस कारण वे गुरुके द्वारा नहीं उपदिष्ट किये जाते हैं, जिससे कि वे रूप आदिक गुण विद्याके अनुकूल हो जाते। आचार्य समझाते हैं कि ऐसा कहोगे तब तो हम जैन यों कहेंगे कि शब्दतत्त्व भी परब्रह्मसे भिन्न नहीं है, इस कारण वह गुरुसे भला कैसे उपदिष्ट किया जा सकेगा ? ब्रह्म ही बह्मको ब्रह्मसे उपदेश नहीं दे सकता है । यदि आप यों कहें कि अभिन्न भी शद्वको उस ब्रह्मसे भेदपने करके कल्पना कर गुरु महाराज उपदेश दे देते हैं, तब तो हम जैन कहेंगे कि गुरुजी महाराज रूप आदिकोंको भी ब्रह्म या शबसे भिन्न कल्पित कर तिसी प्रकार उपदेश दे देवो कोई क्षति नहीं है । तब तो शद्बाद्वैतके समान रूपाद्वैत और रसाद्वैत भी सिद्ध हो जावेंगे । तैसा होते हुए भी परब्रह्मके ज्ञापक मान लिये गये शद्बाद्वैतको वह वादी उपाय तत्त्व कहे और फिर रूपाद्वैत, रसाद्वैत, स्पर्शाद्वैत, आदिको उपाय तत्त्व न माने । इस प्रकार साग्रह कहनेवाला शद्बाद्वैतवादी हिताहितको विचारनेवाली या परीक्षणा करनेवाली बुद्धिसे युक्त नहीं है । न्यायके द्वारा प्राप्त हुए पदार्थको अपनी इच्छासे न मानना बुद्धिमत्ता नहीं है।
ननु च लोके सदस्य परप्रतिपादनोपायत्वेन सुप्रतीतत्वात् सुघटस्तस्य गुरूपदेशो न तु रूपादीनामिति चेत् न, तेषामपि स्वप्रतिपत्त्युपायतया हि प्रतीतत्वात् । तद्विज्ञानं स्वप्रतिपत्युपायो न त एवेति चेत् तर्हि शद्धज्ञानं परस्य प्रतिपत्त्युपायो न शद्ध इति समानम् ।
फिर शद्ववादी सशंक होकर अपने पक्षका समर्थन करता है कि लोकमें दूसरोंके प्रति पदार्थोंके प्रतिपादन करनेका उपायपनेसे शद्बकी भले प्रकार प्रतीति हो रही है, इस कारण उस शद्वका गुरुके द्वारा उपदेश होना ठीक तौरसे घटित हो जाता है । किन्तु रूप, रस आदिक गुण तो अन्य पदार्थोके प्रतिपादन करनेवाले उपाय नहीं हैं । अतः रूप आदिकोंका गुरुके द्वारा उपदेश नहीं हो पाता है । आचार्य बोलते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उन रूप आदिकोंकी भी निश्चय करके अपनी प्रतिपत्तिके उपायपनेसे प्रतीति हो रही है । अपना अपना ज्ञान सभी करा लेते हैं। यानी अपनी ज्ञप्ति करानेमें सभी पदार्थ स्वयं आप अवलम्ब उपाय हो जाते हैं । तिसपर तुम यदि यों कहो कि उन रूप आदिकोंका विज्ञान ही उनको अपनी प्रतिपत्तिका उपाय है वे स्वयं रूप आदिक ही उपाय नहीं हैं, अन्यथा सोते हुए या अन्धे पुरुषको भी विद्यमान रूप आदिक अपना ज्ञान करा देते । ऐसा कहने पर तो हम जैन भी कह देवेंगे कि शद्बोंका ज्ञान ही दूसरे श्रोता पुरुषोंको अन्य पदार्थोकी प्रतिपत्तिका उपाय है । केवल शब्द ही दूसरोंको ज्ञान नहीं करा सकता है, अन्यथा बधिरको तथा संकेतको न जाननेवाले पुरुषको भी शब्द अपने वाच्य अर्थका ज्ञान करा देता । बधिर और मूर्खके निकट शब्द अपने स्वरूपसे तो विद्यमान है ही। इस प्रकार रूप आदि और शब्द ये दोनों ही समान हैं । कोई अन्तर नहीं हैं।