Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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२.२०
तत्वार्थ लोकवार्तिके
जैन कह देवेंगे कि शद्वरूप प्रकाश भी वास्तवमें सत् पदार्थ नहीं है । तिस ही कारण वह शद्वज्योतिः परब्रह्मका स्वभाव न होवे | यदि आप उस शद्वतत्त्वको वस्तुतः सत्रूप मानोगे तो अद्वैतकी सिद्धि न हो सकेगी । द्वैतकी सिद्धि हो जावेगी । शद्वज्योतिः स्वभाव एक तत्त्व है और दूसरा उस स्वभावको धारनेवाला परब्रह्म है । इस प्रकार परमार्थभूत दो सत् पदार्थ विद्यमान है, अतः द्वैत बन बैठा । शब्दज्योतिरसत्यमपि परब्रह्मणोधिगत्युपायत्वात्तत्स्वरूपमुच्यते । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छतीति " वचनात् न तथा रूपादयः इति चेत् कथमसत्यं तद्वदधिगतिनिमित्तम् ? रूपादीनामपि तथाभावानुषंगात् ।
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यदि द्वाद्वैतवादी यों कहें कि भलें ही शद्वरूपी प्रकाश असत्य है तो भी वस्तुभूत परब्रह्मतत्त्वके जाननेका प्रकृष्ट उपाय है । अतः वह शद्वतत्त्व परब्रह्मका स्वरूप कहा जाता है । ऐसा हमारे ग्रन्थोंमे कहा हुआ है कि शद्वब्रह्ममें यानी वेद में या आर्ष-शास्त्रोंमें जो प्रवीण है वह विद्वान् प्रकृष्ट आत्मा परब्रह्मको जान लेता है और पा लेता है । किन्तु तिस प्रकार शद्वके समान रूप, रस, आदिक गुण तो परब्रह्मकी ज्ञप्ति के उपाय नहीं हैं। ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि असत्यभूत शद्ब भला कैसे सत्यब्रह्मकी अधिगतिका निमित्त हो सकता है ? | यदि असत्यको भी सत्यका ज्ञापक माना जावेगा तो रूप, रस, आदिकोंको भी परब्रह्मके तिस प्रकार ज्ञापकपनेका प्रसंग हो जावेगा। तस्य विद्यानुकूलत्वाद्भावनाप्रकर्षसात्मभावे विद्यावभाससमर्थकारणता न तु रूपादीनामिति चेत्, रूपादयः कुतो न विद्यानुकूलाः ? भेदव्यवहारस्याविद्यात्मनः कारणत्वादिति चेत्, तत एव शब्दोपि विद्यानुकूलो मा भूत् ।
यदि द्वाद्वैतवादी यों कहें कि वह शद्वतत्त्व भले ही ब्रह्मज्ञानस्वरूप विद्या नहीं है किन्तु सम्यग्ज्ञानरूप विद्याका अनुकूल कारण होनेसे अभेद ज्ञानकी भावनाके प्रकर्षसे तदात्मक होनेपर सम्यग्ज्ञानस्वरूप प्रकाशका वह शद्बाद्वैत तत्त्व समर्थ कारण हो जाता है, किन्तु रूप आदिक गुण विचारे अभेदज्ञानरूप विद्याके समर्थ कारण नहीं होते हैं । आचार्य कह रहे हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम प्रश्न करते हैं कि रूप आदिक गुण क्यों नहीं विद्याके अनुकूल हैं ? बताओ । इसपर तुम यदि यह कहो कि अविद्यास्वरूप भेद व्यवहार के कारण होनेसे रूप आदिक गुण अभेदज्ञानरूप विद्याके अनुकूल नहीं हैं, किन्तु प्रतिकूल हैं, जो अन्धकारका कारण है वह प्रकाशका हेतु कैसे हो सकता है ? ऐसा कहने पर तो हम जैन कहेंगे कि तिस ही कारण शद्ब भी विद्याका अनुकूल न होवे । घट, पट, पुस्तक, देवदत्त आदि शद्वोंसे अनेक भेदव्यवहार होते हुए देखे जारहे हैं । .
गुरुणोपदिष्टस्य तस्य रागादिप्रशमहेतुत्वाद्विद्यानुकूलत्वे रूपादीनां तथैव तदस्तु विशेषाभावात् । तेषामनिर्दिश्यत्वान्न गुरूपदिष्टत्वसम्भव इति चेत् न, स्वमतविरोधात् । न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिवाभाति सर्वे शब्दे प्रति"ष्ठितम् " इति वचनात् ।
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