Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
२१९
पसे मात्र अस्तित्वका व्यभिचार नहीं करते हैं, कुछ न कुछ है तो सही, सो यह तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि असत् पदार्थ में भी सत्ताको कहनेवाले शब्दोंकी प्रवृत्ति होना देखा जाता है । कल्पना किये गये असत् पदार्थोंमें अथवा मत्त, मूर्च्छित अवस्थामें अनेक असत् पदार्थ सत्रूपसे जाने जा रहे हैं । कोई भी वस्तु सतू नहीं है, इस बातको स्वीकार कर रहा वादी सभी वस्तु सत् 1 ही हैं ऐसा कहता हुआ भला स्वस्थ ( आपेमें) कैसे कहा जा सकता हैं ? तिस कारण सिद्ध होता है कि उस से अभिन्न मान लिये गये । गुण, क्रिया आदिमें जैसे शद्वका व्यभिचार है, तैसे शुद्धद्रव्यवादियोंके शुद्ध अद्वैत द्रव्यमें भी शद्वकी प्रवृत्तिका व्यभिचार होना देखा जाता है । इस कारण शद्वको केवल अपने स्वरूपका कहनेवालापन ही हितमार्ग है, अर्थात् सभी शब्द अपने स्वरूप ( डील ) को ही कह रहे हैं । अन्य वाच्य अर्थको नहीं । जैसे मेघध्वनि या समुद्रशद अपने शरीरको ही कह रहे हैं। इस प्रकार यहांतक अधिक समयसे कोई अन्य शद्बाद्वैतवादी कह चुके हैं । तत्र प्रष्टव्याः, कथममी शब्दाः स्वरूपमात्रं प्रकाशयन्तो रूपादिभ्यो भिद्येरन् ! तेषामपि स्वरूपमात्रप्रकाशने व्यभिचाराभावात् ।
अब आचार्य महाराज उत्तर देते हैं, इस प्रकरण में वे हमको यों पूंछने योग्य हैं कि शद्वातवादियोंसे माने हुए वे शब्द अपने केवल स्वरूपको प्रकाश करते हुए कैसे रूप, रस, आदिकों करके भिन्न ( न्यारे ) हो सकेंगे ? बतलाओ ! उन रूप, रस आदिकोंका भी तो केवल अपने स्वरूपक प्रकाश करनेमें कोई व्यभिचार नहीं हैं। आम्रफलको देखनेसे उसका रूप गुण अपने शरीरका ही प्रकाश करेगा, चाखनेसे उसका रस गुण केवल अपने स्वरूपका ही प्रकाश करेगा । इस प्रकार रूप, रस, गन्ध आदिक सभी अपने अपने स्वरूपका प्रकाश कर रहे हैं ऐसी दशामें शद्वतत्त्व भला रूप आदिकोंसे भिन्न कैसे किया जा सकता है ? आप ही सोचिये !
न स्वरूपप्रकाशिनों रूपादयोऽचेतनत्वादिति चेत्, किं वै शब्दचेतनः । परमब्रह्मस्वभावत्वात् शब्दज्योतिषश्चेतनत्वमेवेति चेत्, रूपादयः किं न तत्स्वभावाः ? परमार्थतस्तेषामसत्त्वात् अतत्स्वभावा एवेति चेत्, शब्दज्योतिरपि तत एव तत्स्वभावं मा भूत् । तस्य सत्यत्वे वा द्वैतसिद्धिः शब्दज्योतिः परमब्रह्मणोः स्वभावतद्वतोर्वस्तु सतोर्भावात् ।
यदि शद्वाद्वैतवादी यों कहें कि रूप, रस आदिक ( पक्ष ) अपने स्वरूपको प्रकाश करनेवाले नहीं हैं . ( साध्य ) अचेतन होनेसे ( हेतु ) । ऐसा कहने पर तो हम जैन पूंछते हैं कि क्यें जी ! आपसे माना गया शद्वतत्त्व क्या नियमसे चेतन है ? इसपर तुम यदि यों कहो कि शब्दरूप ज्योतिः तो चेतन ही है, क्योंकि वह चिद्रूप परब्रह्मका स्वभाव है । ऐसा कहनेपर तो हम जैन कह देखेंगे कि तुम्हारे यहां वे रूप, रस आदिक उस परब्रह्म के स्वभाव क्यों नहीं हैं ? रूप आदिक भी तो परब्रह्मसे अभिन्न हैं । इसपर तुम शद्ववादी यों कहो कि रूप आदिक तो बस्तुभूतपनेसे सत्रूप नहीं हैं । अतः वे उस परबल के स्वभाव कैसे भी नहीं हो सकते हैं, ऐसा कहनेपर तो हम