Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
२२१
आप यदि ऐसा मानोगे कि गुरुके द्वारा उपदेश दिये गये शद्वको राग, द्वेष आदिके प्रकृष्ट शान्त कर देनेकी कारणता है, अतः वे शद्ब सम्यग्ज्ञान के अनुकूल माने जाते हैं । अब आचार्य कहते हैं, तब तो रूप आदिकोंको भी तैसे ही उस विद्याकी अनुकूलता हो जाओ ! रूप, गन्ध आदिको दिखाकर भी गुरुजी तत्त्वज्ञान वैराग्यकी शिक्षा देते हैं । शद्ब और रूप आदिकमें कोई अन्तर नहीं है, जैसे शब्दको सुना कर गुरु महाराज सम्यग्ज्ञान करा देते हैं, तैसे ही रूपको दिखाकर स्पर्शको छुआकर निर्वेदको बढाते हुये सम्यग्ज्ञान करा देते हैं। यदि आप शब्दवादी यों कहें कि उन रूप आदिकोंका शब्दके द्वारा निर्देश नहीं हो सकता है । अतः गुरुजीसे रूप आदिकोंका उपदेश हो चुकना सम्भव नहीं है, सो यह तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि ऐसा मानने पर शब्दवादियोंको स्वयं अपने मतसे विरोध हो जावेगा । उन्होंने अपने दर्शन ग्रन्थोंमें ऐसा कहा है कि " लोकमें वह कोई भी ज्ञान नहीं है, जो कि शद्वके अनुगम (स्पर्श) के विना हो जावे । सब ज्ञान और ज्ञेय इस शद्वसे लिप्त हुए सरीखे दीख रहे हैं । अतः सर्व ही जगत् के तत्त्व शद्वमें विराज रहे हैं " इस तुम्हारे आगमवाक्यसे रूप आदि गुणोंका निर्देश होना सिद्ध हो जाता है ।
शाब्दः प्रत्ययः सर्वः शब्दान्वितो नान्य इति चायुक्तं, श्रोत्रजशब्दप्रत्ययस्याशब्दान्वितत्वप्रसक्तेः स्वाभिधानविशेषापेक्ष एवार्थः प्रत्ययैर्निश्चीयत इत्यभ्युपगमाच्च ।
यदि उक्त ग्रन्थवाक्यका आप यह अर्थ करें कि शद्वोंसे संकेत द्वारा उत्पन्न हुए सभी ज्ञान शद्वसे मढे हुए हैं । अन्य रूप, रस आदिक या उनके ज्ञान शङ्खकी चाशनी में पगे हुए नहीं हैं । यह कहना तो युक्तियोंसे रहित है, क्योंकि शब्दोंके श्रोत्र इन्द्रियसे उत्पन्न हुए श्रावण प्रत्यक्षको शद्वसे नहीं अन्वितपनेका प्रसंग होगा । भावार्थ - घट शद्वको सुनकर छोटा मुख बडा पेटवाले कलश रूपी अर्थको जान लेना आगम ( शाद्वबोध ) ज्ञान है । तथा घ और ट इन वर्णोको सुन लेना श्रावणप्रत्यक्ष ( मतिज्ञान ) है । शद्ववादी आगमज्ञानको ही शद्वसे अन्वित ( ओतपोत मिला हुआ ) मानते हैं, ऐसी दशामें श्रावणप्रत्यक्ष शद्वसे सना हुआ न हो सकेगा । दूसरी बात यह है कि अपने अपने वाचक शब्दविशेषोंकी अपेक्षा रखते हुए ही अर्थ उनके ज्ञानों करके निर्णीत किये जाते हैं, यह आपने स्थान स्थानपर स्वीकार किया है । अर्थात् सभी ज्ञानोंके ज्ञेय संपूर्ण अर्थ उन उनके वाचक शोंसे अन्वित हो रहे हैं । यदि रूप आदिकोंको शद्वोंके द्वारा कथन करने योग्य न माना जावेगा तो आपके उक्त सिद्धान्तका व्याघात हो जावेगा, जो कि आपको असह्य है ।
ननु च रूपादयः शब्दान्नार्थान्तरं तेषां तद्विवर्तत्वात् । ततो न ते गुरुणोपदिश्यन्ते येन विद्यानुकूलाः स्युरिति चेत्, तर्हि शब्दोपि परमब्रह्मणो नान्य इति कथं गुरुणोपदिश्यः । ततो भेदेन प्रकल्प्य शब्दं गुरुरूपदिशतीति चेत्, रूपादीनपि तथोपदिशतु । तथा च शब्दा. द्वैतमुपायतत्त्वं परमब्रह्मणो न पुना रूपाद्वैतं रसाद्वैतादि चेति ब्रुवाणो न प्रेक्षावान् ।