Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
इस पूर्वोक्त कथन करके यह बात भी कही गयी समझ लेना चाहिये कि प्रागभाव, ध्वंस आदि पदार्थ तुच्छ अभावरूप नहीं है, किन्तु भावरूप पदार्थ हैं । अतः प्रागभाव, ध्वंस आदि शब्दों की प्रवृत्ति भावोंमें रहनेवाली जातियोंमें है यदि प्रागभाव आदिकोंको भावस्वभाव न मानकर अन्य प्रकारसे वैशेषिक लोग तुच्छ मानेंगे तब तो अभाव पदार्थको उपाख्या रहितपनेका प्रसंग होगा । भावार्थ - - कार्यकारण, धर्मधर्मी, विशेषण, आधेय, आदि किसी भी रूपसे अभाव पदार्थका समझना समझाना न बन सकेगा । यानी अश्वविषाणके समान अभाव असत् पदार्थ हो जावेगा । अतः अभावोंमें भी हम जातिको विद्यमान मानते हैं । वैशेषिकोंके समान आंख मींचकर द्रव्य, गुण कर्ममें ही जातिको मानना और " व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं " इत्यादि जाति बाधकोंका मानना हमें अभीष्ट नहीं है । जाति सर्वत्र रहती है।
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तदेतदसत्यम् । सर्वदा जातिशद्बाद्व्यक्तिसंप्रत्ययस्याभावानुषंगात् । तथा चार्थक्रियार्थिनः प्रतिपत्तॄन् प्रति शद्धप्रयोगोनर्थकः स्यात् । ततः प्रतीयमानया जात्याभिप्रेतार्थस्य वाइदोहादेरसंपादनात् ।
अब प्रन्थकार बोलते हैं कि सो यह " जाति ही सब, शद्वोंका अर्थ है " यहांसे लेकर निरुपाख्यपनेकी आपत्ति देनेतक किसीका कहना सर्व असत्य ( झूठा ) है। कारण कि यदि श द्वारा जातियोंका ही निरूपण किया जावेगा तो उन सभी जाति शद्बोंसे सदा गौ, महिष, घट आदि व्यक्तियोंके सम्यग्ज्ञान होनेके अभावका प्रसंग हो जायगा । तब तो अर्थक्रियाके चाहनेवाले ज्ञाता श्रोताओंके प्रति शद्बका प्रयोग करना व्यर्थ होगा। भावार्थ - लादने और दोहनेमें गोत्व जातिका तो उपयोग नहीं होता है, किन्तु लादने और दोहनेरूप अर्थक्रियाको करनेमें गौव्यक्ति ही प्रयोजनसाधिका है । इसी प्रकार घटत्व जाति जलधारणरूप अर्थक्रिया की और पटत्वजाति शीतबाधाको मेंटनेरूप अर्थक्रियाकी कारक नहीं है । तथा अर्थक्रियाको नहीं करनेवाला पदार्थ वास्तविक पदार्थ नहीं है। आपकी मानी हुयी नित्य एक जाति भी अर्थक्रियाको न करनेके कारण वस्तुभूत नहीं ठहरती है । तिस कारण शद्वके द्वारा जानी गयी जातिसे लादना, दोहना आदि हमारे अभीष्ट अर्थोका संपादन नहीं होता है । अतः सभी शब्दोंका जातिरूप अर्थ मानना अयुक्त है । शब्दों करके अर्थक्रियाको करनेवाले पदार्थो की प्रतिपत्ति हो रही है, वही शब्दका वाच्यार्थ मानना चाहिये । परम्परा लगाना व्यर्थ है ।
स्वविषयज्ञानमात्रार्थक्रियायाः संपादनाददोष इति चेन्न, तद्विज्ञानमात्रेण व्यवहारिणः प्रयोजनाभावात् ।
मीमांसक बोलता है कि यदि कोई निठल्ला पदार्थ हमारे उपयोगी किसी कार्यको नहीं भी "करता है, किन्तु कमसे कम स्वस्वरूप ( अपने ) विषयका ज्ञान करा देना केवल इस अर्थक्रियाको तो बना ही देता है । ऐसे ही गोत्व जाति भी स्व ज्ञानके विषयभूत अपना ज्ञान कराना रूप अर्थ