Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
द्रव्यके विशेषणोंको भी उन शद्बोंने विषय कर लिया है। अन्यथा उपाधिरूप विशेषणोंसे रहित हो रहा वस्तु शद्वका विषय न हो सकेगा । विशेषणोंको शब्दोंके द्वारा जान कर ही शुद्धद्रव्यसे उनकी व्यावृत्ति की जा सकेगी। भावार्थ-असत्य विशेषण भी शब्दके विषय हो रहे हैं, आपने फिर अकेले द्रव्यको ही शद्बका विषय कैसे कहा ? अब शुद्धद्रव्य शदवादी कहते हैं कि इस प्रका कुतर्क नहीं करना चाहिये। कारण कि किसी अज्ञात पुरुषने प्रश्न किया कि इन गृहोंमें देवदत्तका घर कौनसा है ? इसका उत्तर कोई देता है कि जहां वह कौआ बैठा है, वहीं देवदत्तका घर है, इस प्रकार घरके विशेष अधिपतिसे युक्त माने गये घरकी प्रतिपत्ति करने में कौआके संबंधको कारणपनेसे ग्रहण किया जाता है, फिर भी उस स्थलमें वर्तरहे घर शद्बका वाच्य अर्थ घर ही है, इसमें कौआ की कोई अपेक्षा नहीं है। कौआ उडकर पुनः अन्य घरोंपर बैठ जाता है, अतः असत्य उपाधियोंसे सत्यपदार्थका ही कथन होता है। सामान्यरूपसे सुवर्ण किसी न किसी आकारमें रहता ही है, नीबूके समान गोल सोनेका रुचक आकार, अथवा एरण्ड पत्रके समान वर्धमान आकार या सांथियाका आकार एवं पांसा पाटला आदि नष्ट होनेवाले आकाररूप विशेषणोंसे युक्त हो रहे सुवर्ण द्रव्यको कहनेवाले रुचक आदि शद्बोंको भी केवल शुद्ध सुवर्णको विषय करनेवालापन सिद्ध होता है। अर्थात् वे शद्ध केवल सोनेको कहते हैं, रुचक आदि आकारोंकी अपेक्षा नहीं है । उसी बातको हमारे यहां यों कहा है कि जैसे “ ध्रुवरूपसे नहीं रहनेवाले काक आदि निमित्तों करके भले ही देवदत्तका घर जान लिया है, किन्तु गृह शब्द करके विशेषणोंसे रहित केवल शुद्ध घरका ही ग्रहण किया जाता है और जैसे सुवर्ण आदि अपने रुचक, सांथियां, कडा आदि नाश होनेवाले आकारों करके भले ही सहित हैं फिर भी शुद्ध सुवर्ण ही रुचक आदिक शद्बोंके वाच्यपनेको प्राप्त हो जाता है, तिसीके समान रूप, उत्पाद, अनित्य, आदि विशेषणोंसे विशेष्यताको प्राप्त हो रहे द्रव्यका रूप आदि शद्वों करके भले ही कथन किया जावे । फिर भी उन रूप आदि विशेषणोंसे शुद्ध द्रव्यका ही कथन करना सिद्ध है। वे रूप आदिक शब्द अद्रव्यको विषय नहीं करते हैं किन्तु द्रव्यको ही विषय करते हैं । उन रूप आदि उपाधियोंका विशेषणपना असत्य है, जैसे कि घरका काक, कबूतर आदि विशे. षण लगाना अथवा सुवर्णके रुचक आदि आकारवाले विशेषण असत्य हैं । देवदत्तके घरपरसे उडकर कौवा अन्यत्र चला जा सकता है । गलानेपर सुवर्ण अन्य आकार ले लेता है।
सत्यत्वे पुनरुपाधीनां रूपाद्युपाधीनामपि सत्यत्वप्रसंगात् तथा तदुपाधीनामित्यनवस्थानमेव स्यात्, उपाधितद्वतोरव्यवस्थानात् । भ्रान्तत्वे पुनरुपाधीनां द्रव्योपाधीनामसत्यत्वमस्तु तव्यतिरेकेण तेषां सम्भवात् स्वयमसम्भवतां शब्दरभिधाने तेषां निर्विषयत्वप्रसंगादिति सविषयत्वं शब्दानामिच्छता शुद्धद्रव्यविषयत्वमेष्टव्यं, तस्य सर्वत्र सर्वदा व्यभिचाराभावादुपाधीनामेव व्यभिचारात् । न च व्यभिचारिणामप्युपाधीनामभिधायकाः शब्दाः सविषया नाम, स्वमादिप्रत्ययानां स्वमविषयत्वप्रसंगात् इति शुद्धद्रव्यपदार्थवादिनः।