Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अद्रव्य शद्ब करके व्यभिचार होता है। क्योंकि अनित्य, उत्पत्ति, विनाश, और अद्रव्य, इन शब्दोंमें शद्वत्व हेतु विद्यमान है, किन्तु अद्वैत द्रव्यसे विपरीत अर्थको कहनेवाले होनेके कारण वहां साध्य नहीं रहता है । द्रव्यवादी समझाते हैं कि इस प्रकार व्यभिचार होना नहीं मानना चाहिये। क्योंकि अनित्य, विनाश, आदि शब्दोंको द्रव्यके विशेषण होते हुए रूप, रस, क्रिया आदिकी विषयता कर लेनापन है । भावार्थ-उत्पत्ति, विनाश, आदि कोई गुण या द्रव्य पदार्थ नहीं हैं, किन्तु उत्पत्ति आदि तो विशेषण हैं । रूप, रस, आदि उत्पन्न होते हैं । रूप, रस आदि नष्ट होते हैं । इस प्रकार रूप आदिक अनित्य हैं । उनमें मूल द्रव्यपना न होनेके कारण अद्रव्यपना ऐसा कह दिया जाता है, किन्तु वे रूप आदिक धर्मद्रव्यमें सम्बन्धी हैं अतः द्रव्य हैं। इन रूप, रस, आदि शद्बोंको विशेषणका गोचर हो जानेसे अद्रव्य गोचरपना नहीं है, जिससे कि उन अनित्य आदि शब्दों करके हमारे शद्बत्व हेतुका व्यभिचार ही होवे । सत्य ही अद्वैत वस्तुका उन असत्य स्वरूप उत्पत्ति आदि आकारों करके निर्णय किया जा रहा है, असत्य विशेषणोंको धारनेवाले विशेष्योंको कहनेवाले शद्बों करके भी सत्य पदार्थका ही कथन किया जा रहा है, जैसे कि प्रतिकृति ( नकली ) प्रतिविम्ब ( असली ) का ज्ञान करा देती है । वह भी हमारे यहां प्रन्थोंमें कह दिया गया है कि उसके आकार ( विवर्त ) रूप असत्य पदार्थों करके सत्य वस्तुका ही निर्णय हो जाता है । असत्य विशेषणधारी विशेष्योंको कहनेवाले शब्दों करके सत्य पदार्थ ही कहा जाता है । अनेक पुरुष अपनी जननी माताको चाची, बहू, भाबी, काकी, जीजी, आदि शद्वोंसे सम्बोधन करते हुए देखे गये हैं । हकला और गोत्रस्खलनवाले भी प्रमेयको कह जाते हैं।
___ कथं पुनरसत्यानुपाधीनभिधाय तदुपाधीनां सत्यमभिदधानाः शब्दा द्रव्यविषया एव तदुपाधीनामपि तद्विषयत्वात् अन्यथा नोपाधिव्यवच्छिन्नं वस्तु शब्दार्थ इति न चोद्यं, कतरदेवदत्तस्य गृहमदो यत्रासौ काक इति स्वामिविशेषावच्छिन्नगृहप्रतिपत्तौ काकसम्बन्धस्य निबन्धत्वेनोपादानेपि तत्र वर्तमानस्य गृहशब्दस्याभिधेयत्वेन काकानपेक्षणात् । रुचकादिशब्दानां च रुचकवर्धमानस्वस्तिकाचाकारैरपायिभिरुपहितं सुवर्णद्रव्यमभिदधतामपि शुद्धसुवर्णविषयतोपपत्तेः । तदुक्तं- " अध्रुवेण निमित्तेन देवदत्तगृहं यथा । गृहीतं गृहशब्देन शुद्धमेवाभिधीयते" ॥१॥ " सुवर्णादि यथा युक्तं स्वैराकारैरपायिभिः । रुचकाद्यभिधानानां शुद्धमेवेति वाच्यताम् ॥२॥" इति । तद्वद्रपाद्यपाधिभिरुपधीयमानद्रव्यस्य रूपादिशब्दरभिधानेऽपि शुद्धस्य द्रव्यस्यैवाभिधानसिद्धेर्न तेषामद्रव्यविषयत्वं तापापीनामसत्यत्वाद् गृहस्य काकाद्युपाधिवत्, सुवर्णस्य रुचकायाकारोपाधियञ्च ।
अभी वे ही कह रहे हैं कि यदि कोई हमारे ऊपर यह कुतर्क चलावे कि झूठे आकारवाले विशेषणोंको कहकर उनके विशेषणोंको अथवा उन विशेषणोंसे युक्त होरहे नित्यद्रव्यका सत्यपनेसे कथन कर रहे शब्द तो केवल द्रव्यको ही विषय करनेवाले फिर कैसे कहे जा सकेंगे ? क्योंकि उस