Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्त
ननु च जातिद्रव्यगुणकर्माणि शब्देभ्यः प्रतीयन्ते न च तानि शब्दस्वरूपं श्रोत्रग्राह्यत्वाभावादित्यपि न चाद्यं, जात्यादिभिराकारैरसत्यैरेव सत्यस्य शब्दस्वरूपस्यावधार्यमाणत्वात् । तच्छब्दैश्चासत्योपाधिवशाद्भेदमनुभवद्भिस्तस्यैवाभिधानात् ।
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यदि हम शद्वद्वैतवादियोंके ऊपर कोई दूसरी यों शंका करें कि अश्व, कुण्डली, शुक्ल, चलना आदि शब्दोंसे जाति, द्रव्य, गुण, और क्रियायें निर्णीत हो रही हैं, किन्तु वे जाति आदिक तो शब्दस्वरूप पदार्थ नहीं है। क्योंकि शब्द तो श्रोत्र इन्द्रियसे जाना जाता है और घटत्व, अश्वत्व, रूप, रूपत्व, गमन, गमनत्व, रस आदि जाति, गुण, आदिक पदार्थ तो श्रोत्र इन्द्रियसे नहीं जाने जाते हैं । कर्ण इन्द्रियसे ग्रहण करने योग्य ही नहीं है । अतः शद्वोंके वाच्य गोत्व, पुद्गल, रूप, घूमना आदि पदार्थ शब्दरूप नहीं हो सकते हैं । शद्वाद्वैतवादी बोलते हैं कि यह भी कुतर्क करना अच्छा नहीं है, क्योंकि जाति आदिक तो तत्त्व शद्वके कल्पित आकार हैं । असत्य आकारों करके परमार्थभूत शद्वतत्त्वके स्वरूपका ही निर्णय किया जा रहा है । अवास्तविक विशेषणोंके अधीन नानापनेका अनुभव करने वाले उन गोत्व, चणकत्व, ज्ञानी, सुरभि, उत्क्षेपण, आदि शब्दों करके उस शद्बाद्वैतका ही कथन हो रहा है । अर्थात् घटाकाश, पटाकाश, रूप उपाधियोंसे जैसे शुद्ध आकाशका ही निरूपण हो जाता है, अथवा शिरमें पीडा है, पेटमें सुख है, इत्यादि भेद व्यवहारोंसे एक शरीर व्यापी अखण्ड आत्माका ही ज्ञान होता है, उसी प्रकार कल्पितभेदोंसे शद्वाद्वैत ही वर्णित हो रहा है ।
ननु च जात्याद्युपाधिकथनद्वारेण तदुपाधिशब्दस्वरूपाभिधानाद्, अन्यथा तदुपाधिव्यवच्छिन्नशब्दरूपप्रकाशनासम्भवात् । जात्यादिशब्दा जात्याद्युपाधिप्रतिपादका एवेति न शंकनीयं, जात्याद्युपाधीनाम सत्यत्वात् गृहस्य काकादिवत्सुवर्णस्य रुचकाद्याकारोपाधिवच्च ।
यहां कोई पुनः शंका करे कि जाति आदि उपाधियोंके कथन द्वारा तो उन उपाधियों से सहित ही शद्वस्वरूपका कथन किया जाता है । दूसरे प्रकार आप शद्वाद्वैतवादियोंके यहां उन उपाधियोंसे पृथग्भूत केवल शद्वस्वरूपका प्रकाश होना असम्भव है । अतः जाति आदिक शब्द तो जाति, गुण, आदि विशेषणोंको कहनेवाले ही हैं, उन जातिशद्व या गुणशद्व, आदिकोंसे शद्वाद्वैतका प्रतिपादन नहीं होता है । शद्वाद्वैतवादी कहते हैं कि इस प्रकार तो शंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि शदकी जाति आदिक उपाधियां परमार्थभूत नहीं हैं । जैसे कि देवदत्तके घरकी काक, बन्दर, आदि उपाधियां असत्य हैं, काक उड़कर जिनदत्तके घरपर भी बैठ जाता है, बन्दर कूदकर इन्द्रदत्त गृहपर भी चला जाता है, ऐसी दशामें अज्ञात पुरुषके वहां पहुंचनेतक काक द्वारा देवदत्तके घरका ठीक ज्ञान कैसे हो सकता है ? अथवा सुवर्ण द्रव्यकी रुचक, पांसा, सांथिया आदि आकाररूप उपाधिया अलीक हैं, सोनेको पीटकर कडेका सांथिया बना लिया जाता है और सांथियेका रुचक बनाया जा सकता है । एक दृष्टान्त है कि एक अहिफेन ( अफीम ) खानेवाले पुरुषने किसी हल