Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
द्रव्याद्वैतवादिनः शब्दस्य तद्वाचकत्वधर्मस्य परमार्थतो द्रव्यादव्यतिरिक्तत्वात् साधनवाक्येन तत्प्रकाशनेऽपि न हेतोर्व्यभिचार इति चेत् तर्हि शब्दाद्वैतवादिनोऽपि सुतरां प्रकृतसाधनवाक्येन न व्यभिचारः, स्वरूपमात्राभिधायकस्य साध्यस्य शब्दधर्मस्य शब्दादव्यतिरिक्तस्य तेन साधनात् द्रव्यमात्रे शब्दस्य प्रवेशनेन तद्धर्मस्यापि तत्र पारम्पर्यानुषक्तेः परिहरणात् ।
वादी कह रहे हैं कि यदि द्रव्याद्वैतवादी यों कहें कि हमारे यहां शङ्खका वह द्रव्यवाचकत्व धर्म वस्तुतः द्रव्यसे भिन्न नहीं है । अतः वाचकत्वको साधनेवाले अनुमान वाक्यसे भलें ही उस द्रव्यवाचकत्वका ज्ञान हुआ है तो भी अभेद होनेके कारण वह शुद्धद्रव्यका ही ज्ञान है । अतः हमारे हेतुका व्यभिचार नहीं है । यदि ऐसा कहोगे तब तो मुझ शद्बाद्वैतवादीके यहां भी उसी प्रकार विना प्रयासके प्रकरण में पडे हुए स्वरूपको साधनेवाले वाक्य करके हेतुका व्यभिचार नहीं होता है, केवल स्वरूपको ही कहनेवालापन जो साध्य है । वह भी शद्वका ही धर्म है । वास्तव में वह शसे भिन्न नहीं है उस स्वरूपवाचकत्वका उस शद्वत्व हेतुने साधन किया है । आप द्रव्यवादी शद्वतत्त्वका केवल अपने शुद्ध द्रव्यमें अन्तर्भाव करोगे तिस ही करके उस शद्वके स्वरूप होरहे वाचकत्व धर्मका भी उस द्रव्यमें अन्तर्भाव किया जावेगा । तभी परम्पराके प्रसंग होनेका परिहार किया जा सकेगा । भावार्थ — आपके यहां द्रव्यमें शद्वका अन्तर्भाव करते समय शद्बके धर्मका भी अन्तर्भाव करना न्याय्य होगा । अतः सिद्ध होता है कि शब्द और उसके धर्म . दोनोंका अभेद है ।
ननु शब्दाद्वैते कथं वाच्यवाचकभावः शुद्धद्रव्याद्वैते कथम् ? कल्पनामात्रादिति चेत्, इतरत्र समानम् । यथैव ह्यात्मावस्तुस्वभावः, शरीरं तत्त्वमित्यादयः पर्याया द्रव्यस्यैवं कथ्यन्ते तथा शब्दस्यैव ते पर्याया इत्यपि शक्यं कथयितुमविशेषात् ।
यहां हम शद्वाद्वैतवादियोंके ऊपर किसीकी शंका है कि केवल शद्वके अद्वैत में वाच्यवाचकभाव कैसे बन सकेगा ? अर्थात् दो भिन्न तत्त्वोंमें तो एक वाच्य और दूसरा वाचक हो सकता है । किन्तु एक ही तत्त्वमें वही वाचक और वही वाच्य कैसे हो सकेगा ? बताओ । उसपर हम शद्वाद्वैतवादी पूंछते हैं कि तुम द्रव्यवादियोंके यहां शुद्धद्रव्यके अद्वैतमें भला वाच्यवाचकभाव कैसे बन जाता है ? तुम्हारे यहां भी तो एक ही ब्रह्मतत्त्व माना गया है। यदि तुम यों कहो कि केवल कल्पनासे वाच्यवाचकपना है, वस्तुतः नहीं है, तब तो यही बात दूसरे पक्षमें भी समानरूपसे लगा लो ! हम शङ्खाद्वैतवादी भी कह देंगे कि हमारे शद्वाद्वैत में भी कोरी कल्पनासे वाच्यवाचकभाव है, कारण कि जैसे ही आत्मा, वस्तु, स्वभाव, शरीर, तत्त्व, ब्रह्म पदार्थ इत्यादि पर्याय तुम्हारे यहां शुद्धद्रव्य ही कहे जाते हैं, तिसी प्रकार शद्वके ही वे आत्मा, वस्तु आदि पर्याय हैं । यह हम भी कह सकते हैं । अद्वैत पक्ष होनेकी अपेक्षासे ऐसे कहने का दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है ।
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