Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
तथा कालका उपसंहार करनेवाली व्याप्ति भी नहीं बनने पाती है। अन्य व्यक्तियोंमें भी पाये जाने वाले ऐसे साधारणस्वरूप करके उस व्यक्तिकी प्रतिपत्ति मानोगे तब तो प्रकृत अभीष्ट एक व्यक्तिमें श्रोताकी प्रवृत्ति न हो सकेगी, क्योंकि साधारण धर्मोंका आधार तो प्रकृत व्यक्तिसे अतिरिक्त अन्य व्यक्तियां भी हो रही हैं । मनुष्यको लाओ ! ऐसी आज्ञा मिलनेपर ब्राह्मण या शूद्र किसीको भी लाकर लानेवाला सेवक कृतकृत्य हो जाता है। किन्तु हमारे विशिष्ट कार्यको साधनेवाले व्यक्तिका ले आना मनुष्य कहने मात्रसे नहीं हो सकेगा । दूसरे प्रकार मानोगे तो 'अतिप्रसंग हो जावेगा । यानी सामान्यके कह देनेपर अभीष्ट विशेषको न लानेवाला पुरुष अपराधी समझा जावेगा । तब तो सामान्यके कह देनेसे ही विना विशेषोंके कहे उनका आपादन हो जाना चाहिये ।
___ यदि पुनर्जातिलक्षितव्यक्तिसामान्यादभिमतव्यक्तः प्रतीतिस्तदा साप्यनुमानमर्थापत्तिर्वेति स एव पर्यनुयोगस्तदेव चानुमानपक्षे दूषणमित्यनवस्थानम् ।
यदि आप फिर भी यह कहोगे कि शद्वसे जातिका निरूपण कर लक्षणावृत्तिसे व्यक्तिसामान्यको जानकर उस व्यक्ति सामान्यसे विशेष अभीष्ट व्यक्तिकी प्रतीति कर लेवेंगे, तब तो हम जैन फिर पूछेगे कि सामान्य व्यक्तिसे विशेष व्यक्तिका वह ज्ञान भी अनुमान है ? या अर्थापत्ति प्रमाण है ? बतलाइये । यहां भी पहिला पक्ष लेनेपर वही पूर्वोक्त दोष लागू होगा। फिर भी सामान्य व्यक्तिसे सामान्यरूप करके विशेषव्यक्तिका ज्ञान किया जावेगा । यहां भी तीसरे, चौथे, आदि सामान्य रूपोंके ऊपर वही चोद्य उठता चला जायगा और वही पहिले अनुमान पक्षके ग्रहण करने पर दूषण होता जावेगा। इस प्रकार अनवस्था हो जावेगी । शब्द करके विशेषव्यक्तिका परिज्ञान नहीं हो सकेगा।
शब्द प्रतीतया जात्या व्यक्त प्रतिपत्तिरेवेति चेत्, प्रति नियतरूपेण सामान्यरूपण वा? न तावदादिविकल्पस्तेन सह जातेरविनाभावाप्रसिद्धः । द्वितीयविकल्पे तु नाभिमतव्यक्ती प्रवृत्तिरित्यनुमानपक्षभावी दोषः।
मीमांसक पण्डित कहते हैं कि शबसे जातिकी प्रतीति होती है और जातिसे अर्थापत्तिके द्वारा विशेष अभीष्ट व्यक्तिकी प्रतिपत्ति हो ही जाती है । अर्थात् जातिकी स्थिति व्यक्तियोंके विना अनुपपन्न है, अतः दूसरे पक्षके अनुसार अर्थापत्ति प्रमाणसे अर्थक्रियाकारी विशेष पदार्थका तीसरी कोटीमें ज्ञान हो जावेगा। इस प्रकार कहोगे तो हम जैन आपसे पूंछेगे कि जातिके द्वारा व्यक्तिकी अर्थापत्ति क्या प्रत्येक व्यक्तिमें नियमित हुए असाधारण स्वरूप करके होगी ? या अनेक व्यक्तियोंमें पाये जानेवाले साधारण स्वरूप करके होगी ? कहिये । तिन दोनों पक्षोंमें पहिला विकल्प लेना तो ठीक नहीं है, क्योंकि विशिष्ट असाधारण स्वरूप करके उस व्यक्तिके साथ जातिका अविनाभाव सम्बन्ध ( व्याप्ति ) प्रसिद्ध नहीं है, यह कहा जा चुका है । और दूसरा विकल्प ग्रहण करनेपर तो