Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
अनेक पर्यायें तो एक द्रव्यसे या गुणसे अन्वित हो रहीं हैं। सुख जीवकी पर्याय है, दुःख भी जीवका परिणाम है, ज्ञान, इच्छायें भी उसी जीवका स्वभाव हैं तथा खट्टा रस है मीठा भी रस होता है, तिक्त भी रस गुणका विवर्त है। किन्तु कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्योंसे अन्वित नहीं है, जैसे कि देवदत्त नामका एक जीवद्रव्य है, वह अन्य सजातीय और विजातीय द्रव्योंसे अन्वित नहीं है, यानी अन्य द्रव्योंमें यह देवदत्त है यह भी देवदत्त है और यह भी देवदत है ऐसी अन्वयप्रतीति नहीं होती है। किन्तु " वृतिर्वाचामपरसदृशी" वचनोंकी प्रवृत्ति अन्य व्यक्तियोंके सादृश्यको मूल कारण मानकर हो रही है । ऐसी दशामें शद्बके द्वारा प्रकृत अभीष्ट अर्थमें प्रवृत्ति होना या अनिष्ट अर्थसे निवृत्ति होना इत्यादि व्यवहारोंकी हानि हो जावेगी । हां ! इन्द्रिय, मन, हेतु, आदिकी सामर्थ्यसे भले ही उन इष्ट अर्थोमें प्रवृत्ति हो जावे । शाबोधप्रक्रियासे तो विवक्षित अर्थमें प्रवृत्ति न हो सकेगी, द्रव्य अनन्त हैं, एकका दूसरेके साथ अन्वय है नहीं । जिस द्रव्यमें संकेत किया जावेगा उसका प्रत्यक्ष ही हो रहा है। अतः नित्य द्रव्यको शद्बका वाच्य अर्थ माननेमें कतिपय दूषण प्राप्त होते हैं।
न हि क्षणिकस्वलक्षणमेव शद्धस्य विषयस्तत्र साकल्येन संकेतस्य कर्तुमशक्तेरानत्यादकत्र संकेतकरणे अनन्वयादभिमतार्थे प्रवृत्त्यादिव्यवहारस्य विरोधात् । स्वयमप्रतिपन्ने स्वलक्षणे संकेतस्यासम्भवाच्च । वाचकानां प्रत्यक्षादिभिः प्रतिपन्नेक्षादिसामर्थ्यादेव प्रवृत्तिसिद्धेः। प्रतिपत्तुः शद्धार्थापेक्षानर्थक्यात् किं तु द्रव्यनित्यमपि तस्यानन्त्याविशेषात् ।
बौद्धोंसे माना गया और क्षण क्षणमें नष्ट हो रहा केवल स्वलक्षणद्रव्य ही जब शद्धका विषय ही नहीं है, क्योंकि उन स्वलक्षणोंमें सम्पूर्णपने करके संकेत नहीं किया जा सकता है, कारण कि वे स्वलक्षण अनन्त हैं । अनन्त स्वलक्षणोंमें संकेत करना अनेक जन्मोंसे भी साध्य कार्य नहीं है। यदि एक स्वलक्षणव्यक्तिमें संकेत किया जावेगा तो एक व्यक्तिका अन्य व्यक्तिमें अन्वय न होनेके कारण अभीष्ट परोक्ष अर्थमें प्रवृत्ति, निवृत्ति आदिके व्यवहार होनेका विरोध होगा । दूसरी बात यह है कि जिस परमाणु स्वरूप क्षणिक स्वलक्षणको आजतक स्वयं प्रतिपादक और प्रतिपाद्योंने नहीं जाना है, ऐसे स्वलक्षणतत्त्वमें वाचक शद्बोंका संकेत करना भी असम्भव है। वाच्य पदार्थोका प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे इन्द्रिय, हेतु आदिकी सामर्थ्य करके निर्णय कर लेनेपर वाचकोंकी प्रवृत्ति होना घटता है, अन्यथा समझनेवाले प्रतिपाद्यको शद्बकी वाच्य अर्थकी अपेक्षा करना व्यर्थ पडेगा। अर्थात् घट व्यक्तिको चक्षुसे देख लेनेपर और घट शब्दको कानोंसे सुन लेनेपर संकेत ग्रहण करते हुए व्यवहार किया जाता है । पर्याययुक्त द्रव्योंमें संकेतग्रहण और व्यवहार करना होता है । किन्तु स्वलक्षणके समान नित्यद्रव्य भी व्यवहारके योग्य नहीं है, क्योंकि उन द्रव्योंमें अनन्तपना सामान्य रूपसे विधमान है। अतः शद्बके द्वारा क्षणिक स्वलक्षण और नित्यद्रव्य इन दोनोंका वाचन नहीं हो सकता है । पंक्तिके पहिले वाक्य " न हि स्वलक्षणमेव " का अन्वय " किन्तु नित्यद्रव्यमपि " के